पुरूष आयोग Poem by Upendra Singh 'suman'

पुरूष आयोग

पत्नी के अत्याचार से पीड़ित
मेरे पड़ोसी मिस्टर मुसद्दीलाल का पिछली रात से
नहीं था कुछ अता-पता
बेचारे कहाँ हैं लापता
इस चिंता में हमने उन्हें फोन लगाया
और पूछा –
अरे भाई कहाँ हो?
मैं परेशान हूँ बताओ जहाँ हो?
उधर से वो चहकते हुए बोले -
मंज़िल मिलने ही वाली है
मुझे जिस पुरूष आयोग की तलाश है
वो यहीं कहीं आसपास है.
मैंने उन्हें डपटा –
मुसद्दीलाल जी ये क्या बकवास है
कहते हो पुरुष आयोग तुम्हारे आसपास है.
अरे, मियां,
अभी तो संसद से इसका बिल भी नहीं पास है.
मेरी बात सुन वो तैश में आ गए
फ़ौरन गरमा गए
बोले -
होश आओ, अक्ल के घोड़े न दौड़ाओ,
अब मेरी सुनो
और ज्यादा न बड़बड़ाओ.
अरे, इस देश में सब कुछ होता है,
पर उसे कुछ पता नहीं लगता
जो तुम्हारी तरह सोता है.
खैर, अब तो तुमसे बातें करते-करते
‘मेनहोल’ से होकर
मैं एक बड़े भारी बंकर में आ गया हूँ,
पुरूष आयोग का कार्यालय पा गया हूँ
पत्नियों के डर से
यह कार्यालय यहाँ भूमिगत रूप से आबाद है.
ख़ुदा का शुक्र है,
अब तो हम जैसे पत्नी पीड़ितों की भी जिंदाबाद है.

Saturday, December 12, 2015
Topic(s) of this poem: life
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