मेरे विधाता Poem by Upendra Singh 'suman'

मेरे विधाता

मेरे विधाता,
तुम निरीह निरूपाय नहीं हो
तुम सर्वशक्तिमान हो.
हे जगत नियंता,
तुम आदमी नहीं भगवान हो.
मुझे मालूम है,
तुम्हें लोगों ने एक साजिश के तहत
मंदिर, मस्जिद और चर्च में बैठाया है.
इतना ही नहीं
‘इंसानों’ ने इंसानों को छलने हेतु
तमाम युक्ति-चाल व दाव-पेंच लगाया है,
और तुम्हें एक ही नहीं
अपितु अलग-अलग रूपों में दर्शाया है.
सत्ता की सीढियां चढ़ने में
वह तुम्हारा भरपूर इस्तेमाल कर रहा है.
हिंसा, आगजनी व दंगों की राजनीति से
समूची मानवता को बेहाल कर रहा है.
अपना उल्लू सीधा करने हेतु
उसने तुम्हें ईश्वर, अल्ला, गॉड आदि में बाँट दिया है.
इतना ही नहीं.
उसने तुम्हे अपने हृदय से निकालकर
कंकरीट के जंगलों में बैठा दिया है.
मेरे विधाता, अब तो उठो
इन कंकरीट के जंगलों से बाहर आओ.
देखो, तुम्हारे भिन्न-भिन्न नाम का झंडा लेकर
तुम्हारे बंदे एक- दूसरे का खून बहा रहे हैं
और तुम
कंकरीट के इन जंगलों में बैठकर
चैन की बंसी बजा रहे हो.
मेरे विधाता, उठो,
उठो, इन कंकरीट के जंगलों से बाहर आओ,
और हमारी अज्ञानता को मिटाओ.
आओ, एक बार फिर गीता का उपदेश सुनाओ.

उपेन्द्र सिंह ‘सुमन’

Saturday, December 12, 2015
Topic(s) of this poem: god
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