नौ बार, और फिर से
एक ही शब्द, शून्य
उभरता बार-बार
उस भिक्षु-गुरु की
बीस-शब्दीय
कविता में
ड्रैगन -वे कहते हैं—
गहरे उतरता है सागर में
अर्थ की खोज में
और मणियाँ उगलता है
नुकीली चट्टान बनती हैं मणियाँ
बेध जाती हैं चट्टानी मर्म को
उठते हैं ऊपर
रोशनी के स्तम्भ
अद्भुत रंगों से सजे
नाच उठते हैं दैत्य
देवों से ताल मिला
कुल मिलाकर
शून्य में जुड़ता चलता
कुछ, बहुत कुछ
और रचता है अर्थ !
*
क्या है वास्तविक ?
आसमान में फड़फड़ाते
पक्षी की छवि
या फिर
तेज़ बहती नदी में
रुका हुआ अक्स
पानी में हिलता चाँद
या फिर ऊपर
ठहरा चाँद
समानान्तर
निरंतर !
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