एक ओ' मशाल Poem by sanjay kirar

एक ओ' मशाल

एक ओ' मशाल

मेरी आवाज़ में चिंगारी पैदा हो,
चाहता हूँ ऐसा हो
रात को जला सकूँ,
इतनी गति मेरे पैरों में हो
मशालो को घर घर पहुँचा सकूँ,

लेकिन कुछ लोग मुझे बच्चा समझते है
निर आदरी गलियों का आवारा समझे है
इसमें दोष मेरा नही,
उनका भी नही कह सकता
फिर किसका है?
फिर भी चाहूँगा:
कम से कम
एक चिंगारी जला सकूँ

मैने कई बार आवाजें दी
सियासत का पत्ता ना हिला
'दिल्ली' का सिंहासन ऐसा रहा
जैसे भारी भरकम बोझ
जो मिला उसमें खुश रहन मुझे आता नही,
सिर्फ़ कीर्तन से प्रभु दर्शन हो जाताता नही
एक बार ही सही
मैं मशालो को गगन तक ले जाऊँगा
हिदुस्तान क्या था,
और क्या है
एक पल के लिए आभाश कराऊँगा
मशालो को ईधन ना मिला तो क्या
मैं बनूँगा ईधन
जलता रहूँगा, जलता रहूँगा
जब तक किरणें अपना काफिलाफिला
मेरे घर को नही बनती,

S@njay kirar

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