व्यथा Poem by Alok Agarwal

व्यथा

मन में उठी एक व्यथा,
क्या थी मुझे नहीं पता|
लगता है डर
न जाने क्यूँ?
किस्से कहूं, क्या कहूं|
कैसे पिरोउं अपनी मन कि व्यथा इन निरीह शब्दों में|
क्या ये शब्द कर सकते हैं मेरे मन कि अभिव्यक्ति
नए बंधन, नए संबंध,
है आस-पास सब कोलाहल
बात करती हूँ अपनी भतीजी से,
समझ लेती है वह मेरी बातों को
दांत दिखा के कहती है - सब अच्छा है, सब अच्छा है,
मान लिया है मैंने भी उसकी तोतली बातों को
मान लिया है मैंने भी, कि मैं एक हीरा हूँ|
और जिनसे हो रहा है रिश्ता वो कोहिनूर है,
और मैं उनके परिवार का नूर|
और मैं उनके परिवार का नूर|

Tuesday, March 21, 2017
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Alok Agarwal

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