तलाश Poem by Dr. Sandeep Kumar Mondal

तलाश

न जाने कितने दरख्वास्त आते हैं रोज़,
हुज़ूर-ए-कम्बखत मुनीम बना बैठा है I

हिसाब रखने की इसे आदत कहाँ,
मगर वो एक पर्ची ये रोज़ टटोलता है I

न जाने उस लिफ़ाफ़े में क्या कैद है,
जो ये सौ-दफा खोलता है I
अलफ़ाज़ ही तो हैं जो लोग बंद पन्नों में दे जाते हैं,
कुछ अलग तो नहीं
हर एक लिफाफा एक सा ही लगता है I

सपने बुनने की बात हुई तो थी,
हुज़ूर-ए-कम्बखत दरजी बना बैठा है I

सुई धागे से ये सपने बुन रहा है,
कुछ नए सपने उमर कर आए जो फर्श पे
तो सौ दफा झुक कर उन्हें भी चुन रहा है,
एक आद बार सुई चुभती जो ऊँगली पे,
उन्हें इश्क़ का कतरा समझ होटों से चूम रहा है I

आज इतने सालों बाद भी,
मेरे लाख मन करने के बावजूद,
ये बदला नहीं है
कभी मुनीम तो कभी दरजी की शक्ल में,
न जाने क्या ढूढ़ रहा है I

COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Dr. Sandeep Kumar Mondal

Dr. Sandeep Kumar Mondal

dhanbad, jharkhand
Close
Error Success