इबारत Poem by vijay gupta

इबारत

इबारत

हर बार एक नई इबारत
विनाश की तो कभी विकास की।

बड़ी-बड़ी सभ्यताएं पनपी
और मिट् भी गई।

कभी प्रकृति ने उजाड़ा
तो कभी मानव ने स्वयं उजाड़ दिया।

समय का चक्र
सदैव चलायमान।

भुला देता है
सभी निशानों को।

जो विनाश की इबारत
मानव समाज को देती है।

चर्चाओं का आगमन होता है, , , ,
अफशोस कुछ समय
उपरांत विराम भी लग जाता है।

मानव व्यस्त हो जाता
फिर एक नई इबारत लिखने को।

विनाश की इबारत
या विकास की इबारत।

सदियों से ये ही क्रम
धरती पर जारी है।

न जाने कब आएगा वो समय
जब मानव लिखेगा

सिर्फ और सिर्फ
विकास की इबारत।

Thursday, May 25, 2017
Topic(s) of this poem: nature
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vijay gupta

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meerut, india
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