दादा कहते हैं Poem by vijay gupta

दादा कहते हैं

दादा कहते हैं

विहान नाम ही नहीं,
उम्मीद है, भविष्य का सहारा है।

नन्हे - नन्हे हाथ पांवो
के सहारे तू आज चलता है।

कल पूरी धरा तेरे सामने होगी,
एक विशाल प्रांगण की तरह,

चहल-कदमी कर,
उसकी दूरियां नापनी होंगी तुझे।

विशाल पर्वत तेरे सामने होंगे,
उनकी ऊंचाइयां नापनी होंगी तुझे।
तभी एक निश्चित मुकाम मिलेगा तुझे।

मेरा ये मानना है-
झुलसते रेगिस्तान के मानिंद,
जिंदगी की दुश्वारियो के,
थपेड़ों के बीच चल कर ही,
कुंदन सरीखा निकलेगा तू।

नित नए - नए आयाम स्थापित करेगा,
परचम लहराएगा एवरेस्ट सरीखी चोटियों पर।

जिंदगी के हर क्षेत्र में,
तुझे नायाब कामयाबियां मिले।

हर वह चीज तेरे कदमों में हो,
जिनके लिए आम आदमी
जिंदगी भर जुस्तजूँ करता रहता है,
फिर भी महसम ही रहता है।

मैं ही नहीं वरन पूरा परिवार,
तेरी कुशल क्षेम चाहता है।

विधाता से भी मेरी यही विनती है,
विहान को विहान जैसा विशाल,
हृदयी बनाना।

ताकि भविष्य में भी लोग याद करें
विहान - विहान - विहान।

Monday, June 5, 2017
Topic(s) of this poem: grandfather,grandson
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vijay gupta

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meerut, india
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