संवाद Poem by Sadhana Mishra

संवाद

संवाद- वो संदेश जो कहने वाला, सुनने वाले तक पहुंचा पाए।
यही परिभाषा बचपन में बतलाई गई थी।
खतो, आमुख और दूरभाष है कुछ साधन,
और इनकी परिधि भी समझाई गई थी।

लगता है, संवाद से संवेदना कहीं छूट निकल गई है,
असीमित साधनों में, अभिव्यक्ती की मौलिकता खो गई है।
' फेस बुक ' पर अपने गम, खीझ, हर्ष, तड़प को हम बयां ज़रूर करते हैं।
पर सुनने और सुनाने वाले की उत्कंठा सो गई है।

एक सौ चालीस चांद की रातो की जगह ट्विटर ने ले ली है।
शब्द अपने ही अपेक्षाओं के बोझ तले घुट रहे हैं।
हमारा खाना, पीना, घूमना, अपनों संग ' अच्छा लगना' भी अलग अलग हैशटैग से टंगे हुए हैं।

सुबह की गुड मॉर्निंग, रात की शुभरात्रि ' WhatsApp'की छाव तले।
उसी में दबे, आज़ादी के आक्रोश, पर्यावरण की सुरक्षा के हौसले।
बिना किसी आशय या आसक्ति के,
विभिन्न 'ग्रुपो' में, पनप रहे ' वर्चुअल चौपालें ।

घर आए लोगों को एल्बम दिखाने का रिवाज़ भी गया,
' इंस्टाग्राम ' पे हर पहलू की झलक मिल जाती है।
अब अलमारियों में पर्सनल फोल्डर नहीं मिलते,
Pinterestपर पसंद ठोक कर टांग दी जाती है।

पर आज भी जब हम दीवारों से मिल कर रोते हैं,
तो इन सोशल मीडिया से सिसकियां नहीं रुकती।
मन का हर धागा उधेड़ कर बिखेर देने पर भी,
छिली हुई संवेदनाएं बाहर नहीं दिखती।

आज भी 'संवाद ' के लिए सुननेवाले का अंतर्मन चाहिए
जो आपको बिना ' ट्रॉल ' किए समझे, वो अपनापन चाहिए।
और सही मायनों में वही संवाद है,
जिसके लिए शब्दों के घेरे नहीं, प्रेम का आंगन चाहिए।

Friday, September 21, 2018
Topic(s) of this poem: communication
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