सो जाने के बाद दुनियां खत्म होती सुबह तक,
और मैं मुब्तिला था लगातार यह देखते हुए
की वक़्त बस टोंटी से गिरता था
जैसे कुंवारी कन्याओं के नाज़ुक आँसू
और कुछ था
जो 'बेशर्मी' पर बादल बनकर छाता,
हम भी कुछ है - यह बताने वाले जुगनू भी नहीं होते शर्मिंदा।
आखिर कब तक बचा पाते हम
खुद को
जैसे गालियाँ बकते पड़ोसियों को
खानदानी लड़ाइयां नही बचा पाई
जैसे
बड़ी से बड़ी कम्पनियों में बने कपडे भी
शरीर को दाग़ से नहीं बचा पाऐ
इसी तरह
कोई शरीर, दिल को को घावों से नहीं बचा पाया।
जहाँ से आत्मा गर्म सांस छोड़ती है
वहाँ सिकुड़ती है मौत, उदासी, बेबसी।
भले ही आपको यह बात न रजें
की मैं जिनकी और इशारा करता हु
वे जिन्दा हों
या दिखाऊं आपको।
पर जब उनका कत्ल हुआ
और उन्हें जलाया गया बे-मतलब
उनकी राख में त्वचा की तरह
झुर्रियां रही।
बहुत कम आदमी ऐसे बचे हैं,
जो एक साथ दो शदियों में जीते हैं
ईश्वर कहीं नहीं है,
या अब अत्याधुनिक पत्थर है।
जहाँ भी हमने कदम रखे
बुज़ुर्गों की छाती पार करके,
अतीत के मार्मिक चुटकुले या दर्द हैं।
बाद, स्मझाइशों के भी
मोहब्बत की हमने हद तक
चलते उत्तर की ओर
पहुंचते पश्चिमी सभ्यताओं में।
दरअसल हुआ यह था कि
हम वहीँ थे, जहाँ होना था,
और पहुंचना इतना सा था
जैसे शक्तिमान के कहने पर रोज स्कूल
हमें सिजोफ्रेनिया था
हम छुपे हैं अंदर कहीं
ऐसा है नही, पर लगता है बार बार
और कुछ खालीपन सा भी आजकल
जैसे कोई अंगूठा चूसने वाला बच्चा
एक हाथ से खेलता है, उदास।
चोटें लगती थी हमें हर घड़ी
और हम पुकारते पत्थरों को
बहा हुआ ख़ून,
धमनियों की चकाचौंध को याद करता
हमारे जैसे ही लोग रहते हैं
इस दुनिया में
जो मर जाना चाहते है,
किसी को मारकर।
अबोध दिनों में ही क्यों होता है
आनंद का पराया सा सुख
कुछ तो है जो बिन बताये अब भी
हमारे हाथों से फिसलता जा रहा है
एक तो हम थे, की पागल थे
और तेरा चेहरा जो चाँद हो रहा था
बार बार रोकता हमें
जैसे
नवजात की गहरी सांसों में कानून की रुकावट।
फिर भी वक़्त को, हर घड़ी हमने
ख़ुशियों और अचंभे की तरह एक साथ जिया था।
24/07/2017
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