जब इरादा समंदर को हो जीतने का
तो दरिया के पानी से क्या वास्ता है!
ये तय कर लिया जब है मंज़िल मेरी तू
तो राहें निशानी से क्या वास्ता है!
ज़हर बस हवा में जो भरते ही रहते
ना रहम-ओ-करम जो हैं ग़ैरो पे करते
उन्हें ज़िंदगानी से क्या वास्ता है!
मतलब परस्ती ही मकसद हो जिनका
जो चाहें उन्हीं का हो तिनका व ढिमका
उन्हें फिर रूहानी से क्या वास्ता है!
जीवन समर बन गया हर किसी का
है अपना ही किस्सा यहॉ पर सभी का
फिर तेरी या मेरी से क्या वास्ता है!
चलो अब फ़ज़ाओं में मस्ती लुटायें
जो पट हैं दिलों में सभी खटख़टायें
कि पतझड़ बहारों से क्या वास्ता है!
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