सांझ का सूरज
सांझ के सूरज को देखा
वो घबराया-घबराया सा लगा।
दरख्त सहमे-सहमे से लगे
परछाइयाँ लंबी और लंबी होती चली गई।
पक्षीगण घोंसलों में लौटने लगे
तारागण अपनी पारी का इंतजार करते से लगे।
धूप सकुचाने लगी
वो तेज अपना खोने लगी।
सूरज मानो डूब रहा है
क्षितिज लीलने को तैयार दिखा।
लालिमा सूरज के चारों ओर छाने लगे
मानो भय का साया उस पर पड़ा।
ये क्या? कालीमा भी जाने लगी
भय का वातावरण गहराने लगा।
ऐसा लगा मानो
सूरज अपना आत्मविश्वास खोने लगा है।
पृथ्वी पर शांति का साम्राज्य
छाने को उद्धत दिखा।
बच्चे मांओं की गोद में
मचलने लगे।
सांझ का सूरज मेरे अंदर
अजीब सी बेचैनी भरने लगा।
कविगण कल की तवारीख
लिखने को बेचैन दिखे।
और मुझे अचानक से
पहाड़ों के बीच बसे कैंसर वार्ड की
याद सताने लगी।
This poem has not been translated into any other language yet.
I would like to translate this poem