सफर Poem by vijay gupta

सफर

सफर

रेल में करते हुए सफर,
मैंने शहर को दूर से देखा।
गगनचुंबी इमारते,
चमचमाती गाड़ियों की भाग दौड़,
डामर की टेढ़ी-मेढ़ी सड़कें,
उन पर बेतहाशा लोगों की भीड़,
इन सब नजारों ने
मेरे मन को बेचैन कर दिया।
मेरे छोटे से गांव में,
यह सब चीजें नदारत थी।
पहाड़ों की गोद में बसा मेरा गांव,
पथरीले रास्तो का सफर,
ठंडी हवाओं व कपकपाती ठंड का कहर,
मुझे बेचैन कर देता था।
क्योंकि मैंने शहर देखा था,
एक सपना वहां बसने का देखा था।
आते-आते उम्र बाईस,
शहर में बसेरा हो गया।
अचानक गांव पराया हो गया,
शहर अपना हो गया।
अब जिंदगी का कठिन सफर,
शहर की सड़कों पर शुरू हो गया।
दूर से दिखने वाली गाड़ियां
अब कातिल नजर आने लगी
सड़कों की भीड़-भाड़
बेगानों की भीड़ से लगने लगी।
तंग गालियां, बदबूदार नालियां, छोटा सा आवास,
काफी था मेरे अंदर शहर को लेकर बसे तिलिस्म को तोड़ने के लिए
मुझे याद आने लगा,
मेरा गांव, अच्छे स्वांस, अपनापन लिए अपने लोग।
समय बदल गया,
गांव पीछे रह गया।
और अब रह गई शेष,
सिर्फ और सिर्फ यादें।

Monday, March 5, 2018
Topic(s) of this poem: journey
COMMENTS OF THE POEM
vijay gupta

vijay gupta

meerut, india
Close
Error Success