अब वो बासर न रहे Poem by Amit Mamgain

अब वो बासर न रहे

अब वो बासर न रहे,
धरा अभी भी हे वही, पर अब वो जनविचार न रहे,
थे पह्ले सबके उर में प्रणय व अधर पे कोकिल स्वर जहाँ,
नवल युग में अब वे उर व अधर न रहे ।

थी जिनके व्यक्तितत्व से रोशन दिशाये जहाँ,
अब रोशन दिशाये कहाँ, वे बेलौस व्यक्तितत्व ही न रहे ।

मानिनी थे सभी दरख़्त जहाँ, एक दर्द था उनके लिये
वही आज फुस्फुसाने के लिये भी उनका सम्मान ही न रहा ।
हो रही उनकों बचाने की कवायदे सिर्फ अपने सम्मान के लिये,
क्योंकि विषैले लोगों के कारण, अनुकूल वातावरण ही न रहा ।

थी नदियाँ पावन पूजा का केन्द्र जहाँ,
वही अब गंदगी फैलाने के लिये इनके सिवा दूसरा कोई स्थान ही न रहा ।

बावजूद इसके पड़ता नही फर्क किसी को, अमित,
क्योंकि सुनने के लिये वह कर्णसहित मानव ही न रहा ।
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Monday, August 26, 2019
Topic(s) of this poem: sadness
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