महबूबा को ज़िंदगी का नाम न दो Poem by Upendra Singh 'suman'

महबूबा को ज़िंदगी का नाम न दो

अपनी महबूबा को कभी ज़िंदगी का नाम न दो.
ज़िन्दगी बेवफ़ा है उसको ये ईनाम न दो.


मयकदे की रवायत में जो दाग लगाते हैं.
ऐसे दरिंदों को मरने दो मगर ज़ाम न दो.


मेरे महबूब है मंजूर मुझे हर सज़ा तेरी.
मगर मेरी वफ़ा का मुझे यूं दाम न दो.

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Sunday, June 24, 2018
Topic(s) of this poem: manners
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