निर्भया-क्या वाकई जीत गई? Poem by Tanya Roy

निर्भया-क्या वाकई जीत गई?

Rating: 5.0

न साथी न संगी कोई
न सखी न सहेली,
उस रात वह थी
अकेली ही रोई,
आगोश में वह मौत की भी
थी अकेली ही सोई।
नश्वर शरीर क्या चीज है भला?
तड़पती रूह के स्वर ने
देश को झकझोर दिया
मंदिर, मस्जिद और गिरिजाघर
जाने वालों -
तुम सबसे है बस एक सवाल किया-
आखिर कहाँ पुरुषार्थ में कमी रह गई?
निर्भया- क्या वाकई जीत गई?

हवस के उन चार दरिदों को
आखिरकार सजा सुना दी गई।
पूरे देश द्वारा भाव-भीनी श्रद्धांजलि
दे दी गई
इंडिया गेट के बाहर जलती
असंख्य मोमबत्तियों की लौ
पूछ रही तुमसे है-
निर्भया- क्या वाकई जीत गई?

अपनी गुड़िया के बचपन को
तार-तार होते देख
हर माँ की आँखों में रुलाई आई
रोती, सिसकती, कुंठित
बेटी की याद में तरसती
उस माँ की आँखें
पूछ रही तुमसे है-
निर्भया- क्या वाकई जीत गई?

एक बस है चलती हुई,
एक लड़की भयभीत बैठी हुई
हिलोरें मारता तो है उसका मन
परंतु कहीं ठिठके से हैं
उसके कदम
ऊन्हीं लड़खड़ाते कदमों ने
किया सवाल तुमसे है-
निर्भया- क्या वाकई जीत गई?

पवित्र कल-कल बहती,
अविरल, निर्मल
हिमालय से नीचे को उतरती
फिर आगे पहुँचकर वह कराहती
गंगा-जो मैली हो गई
वह मैली गंगा
पूछ रही तुमसे है-
निर्भया- क्या वाकई जीत गई?

अजेय, अपराजित मानवता
से सुसज्जित भारत माँ रही
परंतु कई बार शर्मसार हुई
अपने ही बेटों के कर्मों से
ग्लानि से भरी हुई
माँ की आँखें
पूछ रही तुमसे है-
निर्भया- क्या वाकई जीत गई?

हर घर में द्रौपदी हो गई
स्त्री वस्तु बना दी गई
उसके वस्त्रों की जग हँसाई हुई
बच्चियाँ ऊपभोग मात्र बना दी गई
परी-कथाएँ किताबों तक
सीमित हो गई
आज वही कहानियाँ
पूछ रही तुमसे है-
निर्भया- क्या वाकई जीत गई?

आत्मसंयम जब कहीं खो गया
मनुष्य भेड़िया बन गया
अनगिनत सीता हरण हुई
स्वप्न सीमित हो गए
घरों अशोक वाटिका बन गए
चूड़ियाँ बेड़ियाँ बन गई
चिड़िया कैद हो गई
आज उस घर की दहलीज
पूछ रही तुमसे है-
निर्भया- क्या वाकई जीत गई?

किताबें छीन ली गई
बेटियाँ ब्याह दी गई
दहेज की आँच में जलती
हर घर की कराहती बहुएँ
पूछ रही तुमसे है-
निर्भया- क्या वाकई जीत गई?

उस दूर क्षितिज के पार
काश कोई परीलोक होता
ईन छलावों से इतर
कोई उपवन होता
न कोई भय होता
न कोई भयभीत होता
कोई मन कैद न होता
कोई रूह काँप न रही होती
खिलखिलाहट का कोई अंत न होता
स्वप्न हकीकत में बदलते
बेटियाँ चाहे एवरेस्ट फतह करे या चाँद
इससे कुछ फर्क ना पड़ता
तो शायद मैं कह पाती
हाँ-
निर्भया- आज वाकई जीत गई।

Wednesday, September 26, 2018
Topic(s) of this poem: powerful
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 26 September 2018

यदि आप मुनासिब समझें तो मेरी कविता 'आपकी निर्भया' भी पढ़ें और अपने विचारों से अवगत करायें. आपकी कविता से कुछ शब्द: - निर्भया-क्या वाकई जीत गई? बेटियाँ चाहे एवरेस्ट फतह करे या चाँद इससे कुछ फर्क ना पड़ता तो शायद मैं कह पाती हाँ- निर्भया- आज वाकई जीत गई।

0 0 Reply
Rajnish Manga 26 September 2018

आपने निर्भया सहित उन सभी बच्चियों की ओर से जिन्हें वहशियों की दरिंदगी का शिकार होना पड़ा है, देशवासियों और देश के कर्णधारों से कलेजा चीर देने वाला प्रश्न किया है, जिसका जवाब शायद किसी के पास नहीं है. सख्त क़ानून और सज़ा-ए-मौत का डर भी उद्दंड व्यक्तियों के दुस्साहस पर अंकुश नहीं लगा पा रहा. उल्टे, क़ानून के रखवाले भी कई बार इन अपराधों में लिप्त पाए गए हैं. धन्यवाद.

0 0 Reply
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Tanya Roy

Tanya Roy

Bhagalpur
Close
Error Success