गर्जन कर-गर्जन कर
चुप बैठे क्या पाया है,
उठ कर प्रज्वलित
जो घना अंधेरा छाया है|
इस शुष्क रात में चंचलता भर
दामिनी की बौछार करा,
संग्राम विजय करके तू आ
जय-जयकार करेगी धरा||
जो तेरा है वह तेरा है
तुमने दान नहीं है लिया,
प्रकृति के हर मूल्यों पर
तेरा भी अधिकार भरा|
उठ, स्थिरता भर!
बाणों में संधान करा,
संग्राम विजय करके तू आ
जय-जयकार करेगी धरा||
तू मूक बना क्यों बैठा है
अस्थियों में झंकार करा,
जो सफल स्वरूप बिहान हुआ
जय घोष का होगा वृक्ष हरा|
निज महाशक्ति के प्रबल रूप से
रण में तू हाहाकार मचा,
संग्राम विजय करके तू आ
जय-जयकार करेगी धरा||
क्षमता तेरी तू ही जाने
दूजो ने अपमान करा,
इस काल चक्र परिवर्तन से
उन नयनों में सम्मान भरा|
जो उन्मुख थे, सब सन्मुख है
करते हैं सम्मान बड़ा,
संग्राम विजय करके तू आ
जय-जयकार करेगी धरा||
~ अनुराग अंकुर
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