सुबह उठते ही रोज़ की तरह
मन में बस एक ही सवाल
यह जीवन क्या है? ? ?
दौडती भागती सफ़र में
हमारे पास खड़ा कौन है?
हम को खबर नहीं
क्या हमने पीछे छोड़ दिए
उसका ख्याल नहीं…
याद नहीं कब गीली घास में
नंगे पाँव हम चले थे
पतझड़ के बाद
की हरियाली को
आँख भर के निहारे थे…
खुले आसमान में
तारों के झुण्ड को
पता नहीं कब हम गिनने की
कोशिश किये थे
चाँद की रोशनी के तले
चैन की नींद सोये थे…
देखने का समय अब नहीं है
वह गिलहरी जो हमारे बगीचे में
खेलती कूदती रहती है
वह फूल जो हम को
देख कर मुस्कुरा देती है…
समय नहीं है की हम
अपने बच्चों के साथ
एक दो पल गुजार सके
हमारे दादी के जैसे
कहानी उनको सुना सके…
आखिर क्यों इतनी व्यस्त हो गए
हम अपने जीवन में
सपनो के पीछे भागते भागते
खुद की सपनो को भूल बैठे
जो सच में खुशी होती है
उस से ही हम रूठ बैठे…
रोज़ यही सवाल
हम को खाए जाता है
जीवन के इस सफ़र में
हमने क्या चाह था
और क्या हमने पाया है…
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