जल रहे है पल "दधीची", सब दिशाएँ मौन है क्यों,
आदमी ही आदमी से पूछता फिर कौन है तू?
मुर्गियों के पर सरीखे जेब खींचे जा रहे है,
घाट पर जलती चिता में प्राण खोजे जा रहे है।
औषधि, उद्योग सारा, प्राण घातक है दवाएँ,
मरने वाले प्रश्न है सब, उत्तरों पर मौन छाए,
कुछ मनीषी किन्तु अब भी चाल से न बाज़ आते,
औषधि का नाम लेकर, रक्त में "पानी" मिलाते।
इस घने संघर्ष में क्या! खेल खेले जा रहे है।
घाट पर जलती चिता में प्राण खोजे जा रहे है।
हर दिशा में है अंधेरा, आंधियों ने बीच घेरा,
दीपकों पर कर मुकदमें, पूछते हो कौन मेरा।
लाश, पानी खोजती खुद आ गयी मैली नदी में,
भूख बेघर है सड़क पर, त्रासदी की इस सदी में।
और हम विपदा में अवसर सिर्फ खोजे जा रहे है।
घाट पर जलती चिता में प्राण खोजे जा रहे है।
हो रहा है काम किन्तु बोलो क्या पर्याप्त है ये,
आंकड़ों में सब भला है, किन्तु जन को ज्ञात है ये।
तुम कहो कुछ तो दधीची आस्तियां क्या दान दोगे,
मर रही अपनी धरा को फिर नवागत प्राण दोगे।
पुण्य होकर युग-प्रवर्तक, पाप अक्षुण्ण पा रहे है।
घाट पर जलती चिता में प्राण खोजे जा रहे है।
सञ्जय किरार
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