दोहे-शृंखला: स्त्री कहती है! Poem by sanjay kirar

दोहे-शृंखला: स्त्री कहती है!

1) समझौतों की शर्त पर, जन्म पा रहे "आज"।
कई दफ़ा पापा हुये, हमसे ही नाराज।

2) सांझ का दरवाजा हमें, देता यही पुकार,
नहीं सुरक्षित हर गली, माँ-बिटिया लाचार।

3) हम पढ़ने के नाम पर, इज्जत लाये संग,
और पड़ोसी गिन रहे, बहू-आयामी रंग।

4) मासिक धर्म ने जब हमें, छोड़ा है लाचार।
तब-तब माँ के जह्न में, शंका करे प्रहार।

5) अंग बने है काम से, सबका है उपयोग
किन्तु समझे आदमी, स्त्री को उपभोग।

6) कौन सी मुश्किल में नहीं, देती हूँ मैं साथ,
फिर भी दुनिया को दिखे, मेरे खाली हाथ।

7) घर की लक्ष्मी घर रहे, देते लोग सलाह।
सच में दुनिया-नाव की स्त्री है मल्लाह।

8) हॉस्टल की राह कठिन, और फिर ताने चार,
"चार-जनों" के हाथ में, गुण-अवगुण का भार।

9) कई दसकों पोशाक ही, बनी स्त्री पहचान,
जींस हुआ है बद-चलन, साड़ी-शूट महान।

10) अब भी शाला में नहीं, हुआ उचित अनुपात,
सर से लेकर पाँव तक, एक यही हालात।

11) औरत को लड़ना पड़े, अधिकारों की जंग।
फिर किस मुंह से कह रहे, स्त्री को आधा अंग।


सञ्जय किरार

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