कर्मवीर Poem by vijay gupta

कर्मवीर

कर्मवीर

यह कैसी जिंदगानी है,
फलाई की सरपरस्ती में,
नितांत अभावो में भी,
जीवंत तरीके से जी रही है।
टूटे-फूटे बर्तन,
फटी-पुरानी बोरियाँ ही,
उसकी पूँजी है,
और जीवन का आधार भी।
सड़क पर दौड़ती आधुनिकता,
सदैव मुंह फेरे रहती है।
उसे भी इसकी अब कोई परवाह नहीं,
अपनी नियति मान चुका है इसको।
कबाड़ बीन कर गुजारा करना,
उसका हुनर बन चुका है।
गर्मी हो या जाड़ा-बरसात,
आते हैं, चले जाते हैं,
वो उनको अपलक देखता है,
चारपाई पर बैठे-बैठे।
वट वृक्ष की भांति अटल है,
अचल है, अपनी दिनचर्या में व्यस्त है।
कभी-कभी गुनगुनाता भी है,
दुलार भी करता है अपने बच्चे को।
कल ही कबाड़ में मिले खिलौने से,
अपने बच्चे के चेहरे पर मुस्कान लाया था।
एक पुरानी माला से,
अपनी पत्नी को गुदगुदाया था।
उसकी बहादुरी का कायल हूं मैं,
जिंदगी से, प्रकृति से कैसे जूझ रहा है।

Sunday, June 9, 2019
Topic(s) of this poem: poverty
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vijay gupta

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meerut, india
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