काश मैं एक वृक्ष बनता
और तुम बहती नदी
मैं हमेशा शांत स्थिर
तुम बनी कल-कल ध्वनी!
तुम सदा चलती समय से
स्थितिप्रज्ञ मैं मूर्तिमान
तेरे हर बदलते रूप पर मैं
लगाये अपना अवधान!
एक दिन, तुम उफन आती
स्नेह की बरसात से
विहल जाते प्राण मेरे
हर श्रंखला, हर पात से!
फिर सरसराहट दौड़ती
तेरे उरोज सरोज में
मैं होके आकुल डोलता
प्रेम मधु की खोज में!
तुम तोड़ देती तटीय बंधन
छोड़कर रेखीय बहाव
लालसा मैं छोड़ नभ की
मांगता जीवन झुकाव!
चहुँ बाँध लेती पाश में तुम
मुझे प्रेम के स्त्रीतत्व से
मुझे तृप्ति मिलती गुह जड़ों में
एक मुक्ति, पौरुष सत्व से!
प्रेम के उन्माद में तुम
डालती क्षैतिज दबाव
बिखरता तृण तार हो मैं
शून्य में समुचित सभाव!
प्रेम के शिखारांत उन्मुख
खींचती तुम प्रातिपदिका
पूर्ण होने की ललक में
लिपटता मैं खोज करता!
उछल आती तुम तरंगित
कंठ से मेरे मिलन को
उखड़ गिरता पूर्ण जड़ से
मैं तुम्हारे समागम को!
हम सदा फिर साथ बहते
बिछड़ते न फिर कभी
काश मैं एक वृक्ष बनता
और तुम बहती नदी!
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