कुछ ज़िन्दगी सा Poem by Vishnu Pandit

कुछ ज़िन्दगी सा

ज़िन्दगी से झूझता हुआ मैं हारा सा थका सा.
कुछ दूर चला फिर भूल चला, भटका सा
ना नींद, ना सपने, ना ही मंजिल और ना ही अपने
बढ़ता जा रहा बिन बादल बिन छाँव, कुछ बुझा कुछ जला सा.

ज़िन्दगी से झूझता हुआ मैं हारा सा थका सा.

रात का उजाला वही जो दिन का अँधेरा
कितने अरमानो की लौ जली, कभी सूरज कभी रात के तारे सा
बदला नहीं मौसम और ना ही समय
नीरस दृश्य कुछ बंजर कुछ शमशान सा

ज़िन्दगी से झूझता हुआ मैं हारा सा थका सा.

अभी तो दम भर ना रुका, फिर चल पड़ा,
दर्द कंधे पर लिए, लडखडाता सा.
बचा है तो सिर्फ समय के ख़त्म होने का इंतज़ार
बुझते हुए दीये में अन्खरी तेल बूँद सा.

ज़िन्दगी से झूझता हुआ मैं हारा सा थका सा.

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Vishnu Pandit

Vishnu Pandit

Nanital, India
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