गुजरे खामखाँ बस सोचने के वो ज़माने
वक्त आया है की आज खुद को आजमां लें
बहुत कुछ था
अतीत के खँडहर में दब गया
बहुत कुछ है छुपा अभी भी भावी भवन के गर्भ में
ठोखरे खायी हैं माना
पर दर्द की तन्हाइयों में बहुत सीखा बहुत जाना
कुछ चित्रित हुआ जीवन पटल पर
कुछ रमा तकदीर में
पर बहुत कुछ है जकड़ा अभी भी
वक्त की जंजीर में
ये खँडहर ये खाईयां
ये घाटियां ये पर्वत
ये झील ये नदियां
देखता हूँ कब तक रोक पाएंगी अपने रस्ते
कड़कड़ाकर एक दिन धरा पट खोल देगी
प्रशश्त हो जायेंगे अपने रास्ते
अम्बर के एक ओर से
दिखेगा प्रकाश का एक प्रभा-मंडल
रोशनी फैलेगी दूर क्षितिज तक
चमक उठेगा अम्बर
टूटेगी दांतों की कड़कड़ाती लय
जिश्म में होगा ज्याला सा जोश
ह्रदय में होगा स्फूर्तिमय आगोश
कि वादियों की इस सर जमीं में ख्वाब को सच का अंजाम दे
वक़्त आया है की आज खुद को आजमा लें
भ्रमण कर लिया है दूर तक
मन की बौंरी गति से
देख लिया है तिमिर तट तक
विश्वास की आश्वस्त नजर से
इस खँडहर के उस ओर
एक मंदिर सा पवन महल है
वक्त है बदला
और विजय की चंचल चहल है
रह में झाड़ियाँ है, कांटें हैं, कंकड़ियां हैं
पर हवाओं में किसी चमन की सी महक है
पगडंडी से इस रह के पार
मंजिल के करीब खुशबू है उजाला है......!
वक़्त को बदलने के वास्ते
हर चोट से एक सबक लें
वक्त आया है की आज खुद को आजमा लें.....!
विवेक तिवारी
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oh how wonderful, just like old times but with more elegance and style, this brings out passion and brilliance of the poet which is no surprise for many of the reader like me, indeed a poem of perfection sir