पत्थरों की भीड़ में, शीशे सा उजला आदमी,
ढूँढता था रहगुज़र, थक के हारा आदमी ।
हादसों की चिमनियों से, शोर का उठता धुँआ
भीड़ के बाज़ार में, खोया हुआ था आदमी ।
चिलचिलाती धूप थी, और पाँव में छालें लिये
ज़िन्दगी से ताउमर भिड़ता रहा था आदमी
जी जलाकर मन जलाया, तन जला कर चुप रहा
फूँक अपना आशियाँ, करता तमाशा आदमी ।
मौत से करता ग़िला कब तक भला?
ज़िन्दगी की मार से घबरा गया था आदमी ।
रास आई कब उसे, इश्क़ की रंगीनियाँ
उड़ चला था आसमान में, पंख ग़ैरों के लिए
औंधे मूँह फिर आ गिरा ज़मीं पर आदमी ।।
#RA
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