आदमी... Poem by Ritika Abigail

आदमी...

पत्थरों की भीड़ में, शीशे सा उजला आदमी,
ढूँढता था रहगुज़र, थक के हारा आदमी ।

हादसों की चिमनियों से, शोर का उठता धुँआ
भीड़ के बाज़ार में, खोया हुआ था आदमी ।

चिलचिलाती धूप थी, और पाँव में छालें लिये
ज़िन्दगी से ताउमर भिड़ता रहा था आदमी

जी जलाकर मन जलाया, तन जला कर चुप रहा
फूँक अपना आशियाँ, करता तमाशा आदमी ।

मौत से करता ग़िला कब तक भला?
ज़िन्दगी की मार से घबरा गया था आदमी ।

रास आई कब उसे, इश्क़ की रंगीनियाँ
उड़ चला था आसमान में, पंख ग़ैरों के लिए
औंधे मूँह फिर आ गिरा ज़मीं पर आदमी ।।


#RA

Sunday, June 8, 2014
Topic(s) of this poem: life
COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Close
Error Success