कौलाहल Poem by Shobha Khare

कौलाहल

दिन और रात मे भेद न वे
करते, वे हर छण आते है
सच, मेरे पागल मन को वे
सुख अतुल्यनीय पहुंचाते है


मेरे सब कविताओ मे उनकी
अगुवानी के स्वर गूंज रहे
कविता की संख्या है अपार
अनकहे बहुत, कम गए कहे

मेघो के रथ या वनपथ से
वे निपट अकेले आते है
सावन हो अथवा हो फागुन
कौलाहल नहीं मचाते हैII

Thursday, April 23, 2015
Topic(s) of this poem: life
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