अनंत का अंत भ्रष्टाचार Poem by Anant Yadav anyanant

अनंत का अंत भ्रष्टाचार

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खड़े सब कतार में, देख कतार लंबी आई,
अन्न खाए मंत्री, तरसे खाय किसान,
जहां जाती सब एकही मांगे, बिन देत काहे होत
जब देख सब मांगता दिखात,
बिन मांगे न पाए जैसे होत काम।
काम करवाई जल्दी चाहत,
दे भर,
आह तक निकल न पाऊ
हो दानी तो सोचो फिर,
वरना कहा ऐसा काम होत।

एक बात है आंखों देखी, खड़े सब हैं कतार संभाले,
इतने मे पहुंचे कुछ खास,
खड़े हजार यूं देख रहे, इतनी न देखी बड़ी कतार,
आए पहुंच दिए कुछ खोया दाम,
कतार है देख रही भईया है आगे पहुंचे।
देखत देखत गया पीछे का आगे, यह सब थी दान की कमाल,
इतना तो चलता फिरता, एक बार फिसली चप्पल,
चाहे बार बार फिसलना तनिक बारिश से भीगे नही,
अशाह्यय रहा वह मानव जे देत न पाए,
माना बड़ा पैसा है, बेचा अपना ईमान है,
लोग क्या कहते, हम क्या करें इस पार तो नित भ्रष्टाचार,
धन है तो जन है जन है तो व्यपार
है हम खाते जनता का, इतना खाया कर जाओगे कहा,
छोड़ो इस फिलॉस्फी को करो कुछ काम,
हसेगी दुनिया हसेंगे लोग, नाम है भ्रष्टाचारी अपना ।
खाते जिस थाली में है, करते उसमे छेद हैं,
लूट लुट थाली साफ़, बचा न कुछ
समय है परिवर्तनशील हो जात चौकन्ना हैं,
जाने कब किसकी बारी,
कभी नाव गाड़ी पे तो कभी गाड़ी नाव पे,
अनन्त न ज़िंदगी जियो खुशी भरे पल देकर।

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भ्रष्टाचार
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