हे धरती माँ! hey dharti maa Poem by Shiv Abhishek Pande

हे धरती माँ! hey dharti maa

हे धरती माँ!
हे प्रकृति माँ!

तू है धरती नभ सागर
वन उपवन बसन्त बहार

तेरी रज से पल्लावित्
ये समग्र जीव संसार

तेरे अंचल की छाया मे
अविरल धाराओं की सरिता स्वछंद

हिमशिखरों के नभ तक छुते
पर्वत माला अडिग अन्नत

फल फूल अंकुरण से पोषित
मानव तन मन

तेरी ममता की छाया मे
अनन्द अनन्त

रस गन्ध औषधि से तेरे
उपवन पटे पड़े है

शीतल मन्द सुगन्ध है और
विहंगम नज़ारे नित नए है

तू देश गाव के जात पात के भेद भाव से
बट गयी माँ खंड - खंड

तेरे आँचल पे हक़ सबका
राजा हो या रंक

सबकी तू माँ धरती
तुझसे हम उत्पन्न

तू अपने ही कपूतों
से शोषित है माँ, हो प्रचंड! हो प्रचंड!

मानव शासन से शोषित माँ
तेरे तन को

शीण शीण कर भेद रहे
जो मेरी धरती माँ को

तेरे रोम रोम से वृक्षों को
वो काट रहे है

भू गर्भ के जल स्तर पे
कर घात रहे है

तेरी आकृति को काट काट कर
बाट रहे है

वो आज के लाभ के मद मे चूर अपने
भविष्य की नीव को दीमक सा चाट रहे है

अब बस कर ए स्वार्थी मानव
अब भी वक्त बचा है

माँ की छमा के उधारानो से
इतिहास भरा पड़ा है

तू भोतिक वाद के दल - दल
मे जो धसा पड़ा है

पर मत भूल धरती माँ के अंचल मै
अब भी ममत्व अथाह है
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' शिव काव्य लहरी '

POET'S NOTES ABOUT THE POEM
pain for my mother nature
COMMENTS OF THE POEM
Ajay Srivastava 17 December 2012

hey dharti maa. with bounderies or without bounderis you are respected by every citizen hey dharti maa sampada ka bandar hai..

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