बुद्धिजीवियों के परिसर में,
आधी-अंधेरी
सुनसान रात को,
सड़क के चौराहे पे
सुनाई देती है
कही दूर-दूसरे चौराहे के
बगल में
निर्माणाधीन भवन से
आते हुए
एक डरावना चीख,
सहम ही जाता है मन
और पूछता है
खुद से
वह है कोन
और किस की
चीख है, वह
प्रतीत होता है
कोई अबला नारी।
वह जाता है
उस भवन की ओर
परंतु रोक दिए जाते है
पालतू कुत्ते के द्वारा,
और फटकार कर
भगाया जाता है उसे।
वह देखता है की
एक पालतू कुत्ता
राउंड मारके,
भवन के दूसरे
गेट से
प्रवेश करते है,
लाइट ऑफ हो जाती है
अंधेरा छा जाता है
टन सी आवाज आती है,
और वातावरण में
एक खामोशी छा जाती है,
सदा के लिए।
कर लेते है
मौन धारण
इंटेलेक्चुअल
बन जाते है गूंगा
हो जाते है बेजबान
इस कैरियरवादिता
एवं अवसरवादिता
के दौड़ में,
अपना नौकरियां खोने
एवं असफल होने के
डर से,
इस प्रकार के
घृणात्मक एवं निंदनीय
घटनाओं पर
तो फिर निकल ही जाता है,
कुछ टूटा फूटा शब्द,
इस अर्धविकसित कलम से।
और फिर याद आता है
मुक्तिबोध की वो चार लाइनें,
की 'मुझको डर लगता है,
मैं भी तो सफलता के चंद्र की छाया मे
घुग्घू या सियार या भूत
न बन जाऊँ कहीं।
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