Shoor Poem by Ashish Mehra

Shoor

रात के अन्धियारे में
पनप रहा एक शोर
सुनाई किसी को देता नही
बस बढ रहा हर ओर
सुनाई अगर देता भी है
तो ध्यान देता ना कोई इस ओर
शोर है यह बडा
सजा भी इसकी घनघोर
बढाने वाले मजे में है
सहने वाले चुप बेठे एक ओर
कोई तो इसे मिटाने उठे
कोई तो करे नई भोर
रात के अन्धियारे में
पनप रहा एक शोर//

Monday, April 27, 2015
Topic(s) of this poem: crime
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Ashish Mehra

Ashish Mehra

Alwar, Rajasthan, India
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