Prasanna Choudhary

Prasanna Choudhary Poems

प्रसन्न कुमार चौधरी/Prasanna Choudhary


I
...

Prasanna Choudhary Biography

Prasanna Kumar Choudhary Born: 20 August,1955 at Village Baur in Darbhanga district of Bihar, India. Freelance Author and Blogger. Author of about ten books in Hindi and English. Email: prasanna.kc55@gmail.com; Blogs: (i) prasannachoudhary.blogspot.com and (ii) sharantidha.blogspot.com; twitter: prasanna55.)

The Best Poem Of Prasanna Choudhary

मन एव मनुष्याणां....

प्रसन्न कुमार चौधरी/Prasanna Choudhary


I

साधो, अशब्द साधना कीजै

1.
इस अमावस्या की रात
सफर की तैयारी से पहले क्या तुमने
मानचित्रों को अच्छी तरह देख लिया है?
मेरा कहा मानो तो उन्हे फिर देख लो कहाँ कहाँ जाना है
नोट कर लो

अच्छा पहले बताओ कौन हो तुम?
दीदारगंज की यक्षी? किसी गंधर्वलोक की उर्वशी? कामायनी?
या अजिंठा की गुफा में कैद
सजा के लिए नतशिर वह नर्तकी?
जो भी हो, मेरे लिए सिर्फ एक स्त्री हो
सृष्टि की सुन्दरतम कृति रचना का सुन्दर होना
(पुरूष के लिए) स्त्री होना है़

कूच के पहले थोड़ी देर आइने में झांक लेना
खुद को देखना
अपनी आँखों से आँखें मिलाना साहसी होना है
कम-स-कम आज की दुनिया में
और साहसी होना ही कूच करना है

बालों को संवार लो और जूडे़ में ये फूल गूंथ लो
फिर इन्द्रधनुषी रंग में
झिलझिलाती यह साड़ी ओढ़ लेना
सृष्टि के जितने रंग हैं
उन सभी रंगों का सत्व है यह रंग - ब्रह्म
सभी आँखें तृप्त होंगी तुम्हे देखकर
फिर भी तुम किसी की न होगी

मुक्त होना है सफर पर चलना है
अपनी-अपनी नीहारिकाओं से/ उनकी कैद से
आजाद होना है खुद अपने बनाये घोंसलों को
दूर से देखना
लेकिन क्या सफर में भी हम नहीं ढोते अपने-अपने घोंसले?
अन्तरिक्ष की ऊँचाइयों में जाकर भी हम नहीं गाते सारे जहाँ से अच्छा.......

या फिर
यह सफर सिर्फ भ्रम है
किसी अज्ञात कृष्ण विवर की ओर खिंचे चले जा रहे हैं हम
और
मान बैठे हैं कि सफर है
चलो देखो कैसे चलती हैं
इव्स लारां और गार्डेन वरेली की रूपसियां
तुम्हारा सुन्दर होना ही काफी नहीं
दिखना भी होगा तुम्हें सुन्दर एक शासक की तरह
असुन्दर का सुन्दर दिखना/ फिलहाल हमारे यहाँ सभ्यता की यही परिभाषा है
कापालिक हो, लेकिन दिखो वैष्णव
खूनी हो, लेकिन दिखो मुनि
दिखना यहाँ होने से कहीं ज्यादा अर्थ रखता है
तुम्हें भी होना नहीं, दिखना है मंजूर है?
लेकिन बताओ तो
कैसे दिखता है सुन्दर असुन्दर
जीवन मृत्यु
न्याय अन्याय
क्यों सुन्दर होना हार जाता है सुन्दर दिखने से
जीवन होना हार जाता है जीवन दिखने से
न्याय होना हार जाता है न्याय दिखने से
प्यार होना हार जाता है प्यार दिखने से
फिर क्या है हमारा होना? बस एक मिथ?

सफर की खुमारी में कहाँ खो गयी हो तुम
अच्छे नहीं न लगते मेरे ये सवाल
प्रकाश की गति से भागती तुम
कहाँ छोड़ आयी हो अपना पिण्ड
मेरी ऊर्जा! ......... धियो यो नः प्रचोदयात।1
आइन्सटाइन नहीं हूँ मैं
और क्या एक अदद आइन्सटाइन भी समझ पाया था तुम्हें?

मैं
मुफस्सिल का एक अदना लड़का
‘देवी की सन्तान जिसका कोई दावेदार नहीं’
मृत्यु की सीमा पार कर आया हूँ
चलने
2.
यह है मेरी धरती
जब पुरूषरूपी हवि से देवों ने यज्ञ को पसारा
(तो) उसके दो पैरों से जन्मी थी यह धरती और शूद्र भी
दोनो सगे

अछूत हुए शूद्र, पूजी गयी धरती माता की तरह
छुए गए शूद्र, नोची गई धरती
जैसे हमारी गली का कसाई नोचता है मेमने की खाल
आज तलक घिसटते आये हम बिना पैरों के
देखो क्या गत हो गयी हमारी

पैरों से जन्मने की पीड़ा
और पैरों से चलने का सुख
समझना शायद सभ्य होना है

ठुमकना गिरना फिर ठुमकना नन्हें कृष्ण की तरह
फिर चलना दौड़ना और तेज दौड़ना.......
तेज और तेज
चाँद पर अपना पगचिह्न छोड़
अन्तरिक्ष की किसी अज्ञात गली में
खो जाता है एक आर्मस्ट्रांग पायोनिअर की तरह......
काल की सूई उलट घूमने लगती है
फिर
इस सिलिकॉन घाटी में
हम तलाशते हैं एक पीपल का पेड़/ एक सुजाता
एक थाली खीर से भरी
एक बुद्ध
लीलाजन2 के तट पर छोड़ जाता है
सल्वाडोर डाली खाली मेज/ खाली कुर्सियां/ कॉफी का खाली प्याला

आओ क्षण भर यहाँ सुस्ता लें
कोई जुगलबंदी रचें
तुम वीणा की झंकार बनो/ मैं खाली कैनवास पर दौड़ती कूची
तुम पैरों से जन्मने की पीड़ा/ मैं पैरों से चलने का सुख

किसी स्टीरॉयड के सहारे कब तक दौड़ेगी कोई सभ्यता
दौड़ता तो पैर है
इसलिए किसी को सम्मान देना
उसका चरण छूना है
3.
चेक-अप के लिए अस्पताल में आने लगी है धरती
फूलमती की तरह कोठे से नारी निकेतन
और नारी निकेतन से कोठे पर आती जाती रहती है
एलियट की औरतों की तरह नहीं बतियाती वह माइकलएंजेलो

हवि होना तो हम सबकी नियति है
निरंतर मरना है निरंतर जीना/ निरंतर आहुति है सृष्टि
यत् पुरूषेण हविसा देवा यज्ञमतन्वत।
वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ।।3
कैसे बचेगी धरती हवि होने से?

आहुति और कत्ल का फर्क समझती है धरती
लेजर किरणों से बिंध
मिसाइलों की तरह छटपटाकर टुकड़े-टुकड़े होना नहीं चाहती वह
गैस चैम्बर में घुटकर
वह नहीं बनना चाहती भोपाल
सूर्य की तेज से जन्मी सूर्य की यह बेटी
नहीं होना चाहती भष्म उसी तेज से

आहुति माँ देती है
हवि होना माँ होना है धरती की तरह
यो व: शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः।।4

4.
कहाँ भटक गया मैं!
यक्षी, सुना तुमने दुनिया बदल रही है
जो सपना था साकार हो रहा
जो साकार था सपना हो रहा

हवा के थपेड़ों से खुल गयी हैं क्रेमलिन की बन्द खिड़कियाँ
और हमारा एक दोस्त
जो शांघाई की सड़कों पर बेचता था लाल किताब,
धीरूभाई अम्बानी की जीवनी बेच रहा है
मुनाफा अबकी ज्यादा है

आस्था की कोख से जन्म लेता है चमत्कार5
जब आस्था की दीवार में पड़ जाती है दरार
निकल आता है उससे संशय का महाद्वार
जिज्ञासया संदेह प्रयोजने सूचयति6

लेकिन संशय तो भटकना है
उसे मंजिल से ब्याह दो तो उदात्त सफर बन जाता है
भटकता यथार्थ मन की कामना में विश्राम पाता है

मैं भटकता यथार्थ
तू मन की कामना
भटकते/यूं ही मंडराते शब्दों का गुच्छ है मेरा अस्तित्व
बोलते जाना मेरा धर्म है
तुम समझो या न समझो
एक अन्तहीन अंतरिक्ष/ एक नदी
एक विद्युत-चुम्बकीय तरंग
गुलदाउदी, गुलमोहर, गुलाब, रजनीगंधा, रातरानी.......
भटकता यथार्थ बचपन के साथ
कहीं खो जाता है
टमाटर और चने के खेत में
नमक और हरी मिर्च की पोटली दबाए फिर भी तुम
वहीं कहीं आसपास होती हो
फ्रॅाक फैलाये - टमाटर, साग, फूल और कैरम की गोटियां समेटे

विश्राम की जमीन सख्त नहीं होती
किसी रूढ़ विचारधारा की तरह
कोमल हैं कामना कमल की तरह
जिस पर विश्राम करता है एक ब्रह्मा
हंस की तरह
जिस पर विराजती है एक सरस्वती
गोद की तरह
जिस पर चुपचाप सो जाता है
अभी-अभी उछलता-कूदता एक नन्हा शिशु
5.
दुनिया बदल रही है
और मेरे बच्चे की टिफिन में डाल देता है
चुपके से कोई हेरोइन के पैकेट
या फिर निगल जाता उसे
स्कूल पहुँचने से पहले
एक शक्तिसंपन्न किन्तु अभिशप्त सभ्यता की
एक-एक कर सारी रक्षापंक्तियां
ढ़हती जा रही हैं/ डस गया है उसे एड्स का साँप
और हम रामचन्दर पानवाले की दूकान पर
बालों में कंघी फिराते
कोने में बैठी अधनंगी लड़की को कनखियों से देखते
जोर से उछाल देते हैं
पीक - सड़क पर, जहाँ गणेशी का बेटा सीता है जूता

इस चौक पर हमेशा भगमभाग मची रहती है
हर आदमी भागता होता है अपनी मंजिल की ओर
लेकिन मंजिल क्या है इस पूरी भीड़ की?
है कोई यहाँ मुकम्मिल आदमी?
वह या तो क्षिति है जल है पावक है गगन है या समीर
कलम है कुदाल है या कीबोर्ड
लेथ है स्टेथेस्कोप है या कैरमबोर्ड
विकेट है डंडा है तमंचा या साइनबोर्ड
ऐसा ही कुछ.......
अप्सरा, बताओगी
पंचतत्वों का वह सम्मिश्रण कहाँ है
जिसे देखकर शेक्सपीयर सोचता था
प्रकृति खुद गा उठेगी, ‘यह मानव है! ’
वह आत्मा कहाँ है
जहाँ चेतना की समस्त धाराएं आकर विलीन हो जाती है? 7
एक हजार गाय और स्वर्णमुद्राएं लेकर
जाओ याज्ञवल्क्य के पास पूछकर आओ
यह अतिप्रश्न नहीं है/ सिर तुम्हारा सलामत रहेगा
6.
लो आ गया तुम्हारे सफर का आखिरी पड़ाव
यह शब्दों का प्रदेश है........
इस शब्द का अभी-अभी कत्ल हुआ है
गाढ़ा रक्त बह रहा है
इधर द्वन्द्व में औंधे मुँह गिर पड़ा है यह शब्द
यहाँ किसी ने शब्दों की कै की है
उफ् कितनी दुर्गन्ध है!
बासी शब्दों में रेंगते हैं कीड़े
और आसपास शब्दों का बलगम है
संभल कर चलना!

उधर उस शब्द को देखो
घिसकर कितना बौना हो गया है
मेरे गाँव के शिवलिंग की तरह
इसका बौनापन बताता है
कभी कितना पूज्य था यह

और यह है शब्दों का श्मशान
शून्य में शब्द की बात सुनी होगी तुमने
यहाँ देखों शब्दों का शून्य
क्या इस शून्य में नये शब्दों के पौधे लगाओगी?
इन बासी और मुर्दा शब्दों की प्रदान करोगी
खाद की सार्थकता?

उस दिन राह चलते मिले थे डॉ0 खुराना
पूछ बैठे, ‘ सुना है, आजकल शब्दों की खेती में पिले हो?
फुर्सत निकालकर आना मेरी प्रयोगशाला में
विकसित की है मैंने शब्दों की एक नयी प्रजाति
भई, जिनियागिरी का जमाना है
आनुवंशिक रोगों से मुक्त
एचवाईवी 2001 शब्दबीज ले जाना -
शब्दक्रान्ति लाना इससे ’

और सच!
चौक की बायीं और वाली बड़ी होर्डिंग
(जहाँ पहले ‘ नर्म, मुलायम त्वचा, ’ वाला विज्ञापन होता था)
इसी नये शब्दबीज के आगमन का ऐलान कर रही थी
एचवाईवी 2001 के एक किलो पोलिपैक को आकर्षक अंदाज में हिलाती हुई
एक लड़की फरमा रही थी -
इस शब्दबीज की खरीदारी में ही समझदारी है!
क्योंकि इसमें है
साम्यवाद/ गोल कर दी गई स्तालिन की जीन
मिक्स की गयी है थोड़ी रोजावाली
कम -स-कम चालीस फीसदी फेरबदल के साथ
डाली गयी है माओजीन ...............
उदारवाद/ काफी घटा दी गयी है नपुंसकता इसकी
जिनियागिरी की बदौलत
अनुदारवाद/ सहिष्णु और संयत बना दिया गया है
कल का यह ऐंठा हुआ धनी छोकरा
फतवों के धतूरे नहीं फलेंगे इन शब्द-पौधों में
मुकम्मिल गांरटी, देश भर में 2001 सर्विसिंग सेंटर्स .....

कामिनी! लोगी यह शब्दबीज
7.
‘शब्दों की यह खेती तुम्हें ही मुबारक!
पंचमेल ध्वनियां नहीं कहलाती नाद-ब्रह्म
शब्दों के शिल्पी!
पहले अ-शब्दों की दुनिया में आओ
समझ पाओगे तभी शब्दों का सच्चा मर्म
राहुल, तुम धरती बनो जल बनो आग बनो.....
अ-राहुल बनो तुम
शब्दों की गुफा तुम्हें अपनी कैद में रख
कभी नहीं प्रकट होने देंगी तुम पर
गुफा का रहस्य
शब्दों का तिलिस्म
तोड़ सकता है सिर्फ अ-शब्द!

और शब्द ही अमूर्त होकर बनता है अ-शब्द
जैसे गति अमूर्त होकर बन जाती है नित्य
मूर्त शब्दों की जिन्दगी चाहते हो तो साधना करो अमूर्त बनने की

सच
कितना सहज है मूर्त बनकर
अपनी-अपनी मांदों में दुबके रहना
ऐंठना/ अपने सब्जबाग में इठलाना इतराना ईर्ष्या करना
और कितना कठिन है
अमूर्त होकर सबमें समा जाना प्यार बन जाना

दिव्य ध्वनियों को शब्दों में तराशता है आदमी
और इन शब्दों को ढ़ोना
उसकी नियति है शब्दधारी प्राणी वह
शब्दों के कचरे से, टूटे-फूटे शब्दों से शब्दबाग बनाना
जानता है वह नेकचन्द के रॉक गार्डेन की तरह

देखना चाहो तो देख सकते हो तुम
मिसीसिपी, वोल्गा, अमेजन, गंगा, यांगत्सी, मेकंग की घाटियों में
सुन्दर सजे-संवरे इन शब्दबागों को
सदियों से फेंके गये शब्दों, शब्द महलों के भग्नावशेषों
शब्द-तिनकों और टुकड़ों से जोड़-जाड़कर
बनायी गयी हैं ये सुन्दर आकृतियाँ
ये शब्द-पेड़ ये शब्द-खेत ये शब्द झरने ........
ये शब्द-गुलाब ये शब्द सीढ़ियाँ ये शब्द मूर्तियाँ......
ये शब्द हाइट हाउस ये शब्द-क्रेमलिन ये शब्द-निषिद्ध नगर.....
ये शब्द-जगन्नाथ ये शब्द-मक्का ये शब्द सलीब......

लेकिन मेरे प्रियतम
तुम इन अद्भुत शब्द-बागों में
खो मत जाना
जब लोग शब्दों से ही शब्दों को तराशने लगें
तब तुम उन्हें
स्रोत की
निःशब्द दिव्य ध्वनियों की याद दिलाना

शब्दों से कहना
उनकी आहुति का समय आ गया है
कि उन्हे नया शब्द संसार रचना है
अपनी हवि देखकर माँ की तरह
इस शब्दमेध यज्ञ में इन शब्दों की हवि देते समय कहना -
शब्द ऊर्जा!
तुम हमारी निःशब्द वाणी में, हमारे निःशब्द कर्म में
नये शब्दों के रूप में अंकुरित होओ
बनो एक नया संवाद/ एक नया सेतु
8.
एक पगडंडी अनन्त
आसपास बिखरे कनेर के फूल
एक नदी पहाड़ी/ एक पुल/ एक सुबह
एक उष्ण/ मादक सुगंध/ आम के बौरों की
एक हल्का झोंका हवा का/ पीली मिट्टी/ हरी घास का मैदान
बच्चे/ टिकुलियाँ चुनती लड़कियाँ
एक तरंग - शायद विद्युत्चुम्बकीय
इस एक की कगार पर खड़ा एक मैं
सफर के अन्त में
देखता हूँ सामने एक नया ब्रह्माण्ड

मेरी मृत्यु तुम किसका जीवन हो
मेरी संध्या तुम किसकी उषा हो
मेरे अन्त तुम किसका प्रारम्भ हो?
अलविदा..........................स्वागतम्

फरवरी,1989


II

मन एव मनुष्याणां

1.
जन्मने की अनगिनत कहानियाँ हैं
इनमे सागर हैं, सीपियाँ हैं
धरा है, घट-पनघट है, नदियां हैं
कायिक अंग हैं, वाचिक मंत्र हैं, कर्म हैं
अम्बर है, अग्नि है, अनिल और दिशाएं हैं.........

जन्मने की अनगिनत कहानियाँ हैं
और इन सबमें मै हूँ -
सागर और सीपिओं में, नदी धरा-घट-पनघट में अंग मंत्र कर्म में
अम्बर में अग्नि मे स्फुर और दिशाओं में........

जन्मने की अनगिनत कहानियाँ हैं
इसलिए जन्म नहीं है
जन्मने की क्रिया अजन्मे के सर्वनाम से ही अर्थ पाती है
जब वह छोड़ देती है सर्वनाम का साथ
तब
क्षणभर रमण करती है स्फुलिंग की तरह
अर्थ से घबड़ाकर
व्यर्थ बन जाती है
तौलती है तुलती है
बिकती है बेचती है
राजमार्ग के किनारे
लैंप-पोस्ट के सहारे
निर्वसन खड़ी हो जाती है
व्यर्थ क्रियाओं के कोलाहल से भरी दुनिया जन्मने का अर्थ मांगती है
फिर जन्मने की अनगिनत कहानियों में डूब जाती है
व्यर्थ की सत्ता और अर्थ के सत्य की दुविधा में खो जाती है

जन्मने की अनगिनत संभावनाएं हैं
और उनका निषेध भी
संभावनाओं के अर्थ नहीं होते
लेकिन जन्मने की हर कहानी अर्थवान होती है
जन्मने का अर्थ अनगिनत व्यर्थ संभावनाओं में हर क्षण हर पल घुलता रहता है

जन्मने की अनगिनत संभावनाएं हैं
और इनमें एक मैं हूँ
यदि मैं न भी होता तो क्या होता?

अनगिनत संभावनाओं के बीच
जन्मना एक संयोग है
यही संयोग फिर आवश्यकता और नियति बन जाता है
संयोगों के घात-प्रतिघात से चलती यह दुनिया चाहती है जानना अपनी नियति
फिर खो जाती है नियति की कहानियों में
संयोगों की सत्ता और नियति के सत्य के द्वन्द्व में डूबती-उतराती है

जन्मने की अनेक व्याख्याएं हैं
समुद्र मंथन, शरीर-मंथन, शव-मंथन से टेस्ट-टयूब मंथन तक
जन्मने की ब्रह्माण्डीय परिकल्पना से लेकर एडेनोसिन ट्राइफॉस्फेट1 तक
हजार सिरोंवाले पुरूष की बलि से डीऑक्सीराइबो न्यूक्लियक एसिड2 तक

अपनी प्रतिकृति आप गढ़नेवाले परमाणुओं की अद्भुत कला से चकित दुनिया
भूलती जाती है बलि से जन्मने की कथा
प्रतिकृति गढ़ना बन जाता है सबसे बड़ा आदर्श
हम होना चाहते है वह जो दूसरा है
हम लेना चाहते है वह जो उसके पास है
हम जीना चाहते है वह जो दूसरा जीता है
हम खाना चाहते है वह जो दूसरा खाता है
हम लिखना चाहते हैं वह जो दूसरा लिखता है
हम बोलना चाहते हैं वह जो दूसरा बोलता है
प्रतिकृति -संस्कृति का दिक्-काल हमारी कोशिकाओं के न्यूक्लियोप्रोटीन से
हमारे परीक्षा-भवनों तक
शयन-कक्षों से अबोध शिशुओं की तुतलाहट तक विस्तार पाता है

फिर प्रतिकृतियों के कंक्रीट और मांसल जंगल में
हम ढूंढ़ते है सृष्टि
प्रतिकृतियों की सत्ता और बलि से जन्मने के सत्य का द्वन्द्व
हमे कचोटता है, तोड़ता और जोड़ता है
व्यर्थ की सत्ता और अर्थ का सत्य
संयोगों की सत्ता और नियति का सत्य
प्रतिकृतियों की सत्ता और बलि से जन्मने का सत्य
सभ्यता इन्हीं सनातन द्वन्द्वों की महागाथा है
2.
एक नदी/ दोनों किनारे कास का जंगल
चांदनी के बिखरे टुकड़ों की तरह जहां-तहां फैली बालुकाराशि

एक नदी परम्परा में रची बसी
फिर भी परम्परा से कभी बंधी नहीं


एक नदी चिरन्तन
युवती सनातन
भला कब तक एक मार्ग की ब्याहता होकर रहती
मार्ग तृप्त हो जाता है/ सूख जाता है
नदी बहती रहती है
कभी जीववत्सा कभी बलान के मार्ग पर
अपनी उर्वरता बिखेरती / एक अल्हड़ ग्रामबाला की तरह प्यार लुटाती

नहीं छिनाल नहीं
महाप्रेयसी महाजननी है मेरी कमला3
महाप्रेयसी क्षणिक कामसुख देनेवाली पॉपकार्न प्रेयसी नहीं होती
महाप्रेयसी जीवनसुख देनेवाली ब्याहता प्रेयसी नहीं होती
महाप्रेयसी परमसुख देनेवाली अध्यात्म प्रेयसी नहीं होती
प्रेम जो कामसुख
जीवनसुख
परमसुख से भी परे जाता है
एक प्रवाह होता है
महाकाल की तरह
त्रिसुखदायिनी कमला सिर्फ बहती है
कभी कुछ लेती नहीं
कभी कुछ मांगती नहीं
बस बहती रहती है
आज इस कल उस
मार्ग को तृप्त करती
मार्गों की समझ से परे प्रवाहिका का भी हृदय होता है
वह भी बिछुड़ने के समय रोती है, कलपती है
पर कौन समझे उसे/ कौन मनाये उसे
हाँ मत मनाना मुझे
मैं हृदयहीन/ विश्वासघातिनी/ मत रोकना इस पापिनी को
न वे स्त्रैणानि सख्यानि सन्ति सालावृकाणां हृदयान्येता4

कमला महाजननी
चिरन्तन गर्भिणी
अपनी कोख में सहेजकर लाती है देवमाटी
इसी मिट्टी के सीमान्त पर
जब वह चैतन्य हो उठती है
मैं आया - सैलाब के साथ बिना कॉलबेल बजाये
आँखें मुंदी थी कान खुले थे
मेरे पीछे सामगान था - प्रणेता थे, प्रस्तोता थे, उद्गाता और प्रत्याहारी थे
सुसज्जित कमरा था - सोफे पर वाल्ट डिज्ने का पूरा संसार था
बात करनेवाले कम्प्यूटर थे और पूरी दुनिया एक फ्लॉपी में सिमटी थी
कोने में एक नन्हा सा सेटेलाइट था जो अभी-अभी यूरेनस की परिक्रमा कर लौटा था

मेरा आना दर्ज हो चुका था
स्क्रीन पर एक मर्लिन मुनरो जैसी लड़की मुझे मेरा नम्बर दे चुकी थी
मेरा रक्त परीक्षण हो चुका था
सब ठीक था लेकिन कुछ था जो इस सातवीं पीढ़ी के कम्प्यूटर की समझ से परे था

मेरा संतति प्रवाह उनके फ्यूचर प्रोजेक्शन से मेल नहीं खाता था
टाइम मशीन से वे मेरे अतीत में गये
मेरे जेनेटिक कोड को डिकोड करने की कोशिश की
लेकिन कुछ हाथ न लगा
कम्प्यूटर की वाइरल टेस्टिंग की गयी वह ठीक था

सैलाब की मिट्टी के साथ आया है
शायद स्वायल टेस्ट से कुछ पता चले
स्क्रीन पर यूरेनस की मिट्टी के चित्र देखते बूढ़े ने कहा था

तब तक प्रणेता आगे आ चुके थे
धीमे से मेरे कान में कहा - तुम स्वर-शिशु हो
सात सुरों की अद्भुत सरंचना - जीवन-राग

मेज पर प्लेब्वॉय का ताजा अंक पटककर
सोफे पर बैठे युवक ने अपना पॉकेट कम्प्यूटर निकाला
स्क्रीन पर कुछ म्युजिकल नोट्स उभरे
वाउ! इसमें तो ऐसा कोई राग नहीं
हताश होकर लुढ़क गया वह

इस बीच लेजर प्रिंटर से एक कागज निकला
वंशवृक्ष था जिसके अन्तिम खाने में मेरा नाम होना चाहिए था/ नहीं था
अधर्म-मिथ्या
दंभ-माया
क्रोध-हिंसा
कलि-दुरूक्ति
मय-मृत्यु
नित्य-यातना5
इस वंशावली में मेरा नाम नहीं था

दरवाजे पर औरतें झुण्ड में सोहर गा रही थीं
मेरी आँखें खुल गयीं/ वहाँ कुछ नहीं था
ऊपर फूस की छत थी
सामने मिट्टी की दीवार थी
जल था/ जल प्रलय था - और सिर्फ मैं था अबोध शिशु

कमला महाविद्या6
बोली -
प्रवाह बनना मेरे शिशु, प्रवाह
जब मार्ग ही प्रवाह बन जाये तब प्रवाह के खिलाफ प्रवाह बनना
लोग कहेंगे सब चलता है
तुम कहना सब नहीं चल सकता तुम नहीं चलना
लोग कहेंगे इट डजंट मैटर
तुम कहना इट डज मैटर तुम गौर करना
लोग कहेंगे शब्दों के अर्थ में मत उलझो
तुम कहना यह कैसे संभव है तुम अर्थ पर अमल करना

चुपचाप अटल भाव से बहना होगा तुम्हें
उस वंश परंपरा के विरूद्ध जिसमें तुम्हारा नाम नहीं है

अपने पैरों से चलना
अपने हाथों से श्रम करना
अपने मस्तिष्क से सोचना
अपनी आँखों से देखना स्वप्न बुनना
अपने कानों से सुनना संगीत रचना

व्यस्त भीड़ जिसे लोग दुनिया या समाज कहते हैं
तुम्हारी ज्ञानेन्द्रियों-कर्मेन्द्रियों को कुंद करेगी
लेकिन याद रखना
ऊर्जा संरक्षण के इस दौर में भी सबसे जरूरी है
अपनी ज्ञानेन्द्रियों-कर्मेन्द्रियों का संरक्षण-संवर्द्धन
और सबसे बड़ी बर्बादी है
उनका शिथिल पड़ जाना पार्किन्संस डिजीज की तरह
तलाश सकते हो तुम ऊर्जा के विकल्प
लेकिन कोई विकल्प नहीं इन इन्द्रियों का

चुपचाप अटल भाव से ज्ञानरत कर्मरत रहना होगा तुम्हें
उस वंश-परंपरा के विरूद्ध जिसमे तुम्हारा नाम नहीं है

विनायक बनना, मेरे शिशु
विघ्ननाशक विनायक
सुभगः सुन्दरतरो गजवक्त्रः सुरक्तकः।
प्रसन्नवदनश्चातिसुप्रभो ललिताकृतिः।।7

जब मानवगणों की रचना हुई
तब उनके पास सबकुछ था सिर्फ बुद्धि नहीं थी
उनका मस्तक एक साफ्टवेयर था
वृहस्पति ने जिसकी प्रोग्रेमिंग की थी
उनके अपने डिजिटल कोड्स थे/ रिग्रेसन टेबल्स थे
पूरा जीवन एक प्री- रेकॉर्डेड विडियो फिल्म की तरह था
जिसे रिमोट कंट्रोल से ऑन कर दिया गया था
और जब जहाँ जरूरी होता फास्ट फारवार्ड, रिवाइंड या पॉज कर दिया जाता

मस्तिष्क थे जिनमें बाह्य जगत छायाचित्र की भांति अंकित होते
लेकिन सपने नहीं थे, कल्पना का उन्मेष नहीं था
आंखें थी जो स्थिति अनुरूप रेस्पांड करतीं
लेकिन शोख और शरारती नहीं थीं
नयन अनुरंजित नहीं था
प्रीतिस्निग्धैर्जनपदवधूलोचनैः पीयमानः8 का रस संसार नहीं था
होठ थे जो खुलते और बन्द होते
लेकिन लब नहीं थे
मादक और मधुर उष्मा और खुशबू से सराबोर
जैसे गिरिमल्लिका

पूरा अस्तित्व यंत्रवत था

तब मानवगणों में नया कुछ होने की इच्छा हुई
वे पहुंचे हिमगिरिनन्दिनी के पास
स्नानपूर्व उबटन कर रही महामाया ने तब सिरजा उसे
पशुपति ने उसके मस्तक की बलि दी
समा गया वह मानवगणों के मस्तक में बुद्धि बन
खुद बन गया बच्चों का खिलौना गजानन बन
सृष्टि फिर वही नहीं रही जो थी

बलि होना सबमें समा जाना है
वह सुन्दर सुललित शिशु मस्तक तुममें है, मेरे शिशु, तुममें
वह तुम हो, तत्वमसि

जब सब कुछ फिर यंत्रवत होने लगे
बुद्धि छीजने लगे
तुम भी अपने मस्तक की बलि देना
प्रज्ञा बनकर सबमें समा जाना

मर्त्यलोक के किसी कानून के तहत पेटेण्टेड नहीं है तुम्हारा मस्तिष्क
ब्रह्माण्डीय ऊर्जा ही उसका जेनेटिक मेटेरियल है
किसी विषुवतीय जंगल में सीमाबद्ध नहीं
सर्वव्यापी है वह
बलि ही वह तकनालाजी है जो उसे प्रज्ञा में रूपान्तरित करती है
प्रज्ञा का कोई स्वत्वाधिकार नहीं होता, कोई शुल्क नहीं होता, कोई अंह नहीं होता
आशा-निराशा, राग-द्वेष सब से परे वह सिर्फ प्रज्ञा होती है

ज्ञानरत कर्मरत प्रवाह बन सबमें समा जाना
यही जीवन है

इतना कह कमला मुझे ले आयी विकराल कौशिकी के तट पर
बोली -
इसकी रक्षा मत करना, बहन
अपनी रक्षा आप करेगा यह

फिर महाविद्या कमला अंतर्धान हो गयी

मैं जन्म ले चुका था

किसने देखा जीवन के पार
सब कुछ यहाँ रहस्याच्छादित
एण्ड वी फ्लोट अपॉन अ स्ट्रीम ऑफ लीजेण्ड9
3.
आरम्भ में अन्न था
अन्न की भूख थी/ भूख की आग थी/ आग की विनाशलीला थी
विनाश की विद्रूपताएं थीं/ विद्रूपताओं से भरा संसार था

संसार थे तो सपने थे
सपनों से जुनून थे/ जुनून से रक्त था/ रक्त से रक्तबीज था
रक्तबीज से रक्तरंजित जीवन था/ उस जीवन से रक्ताक्त मन था
रक्ताक्त मन से युद्ध था/ युद्ध से प्रलय था

आरम्भ में अन्न था
अन्न से धन था/ धन से लिप्सा थी/ लिप्सा से लीलाएं थीं
लीलाओं से आसक्ति थी/ आसक्ति से वैमनस्य था/ वैमनस्य से क्रूरताएं थीं

विद्रूप संसार
युद्ध संसार
क्रूर संसार
कोसी का बहाव मुझे इसी संसार में बहाए जा रहा था

तब एक गांव दिखा
लोग उसे नदी घाटी सभ्यता कहते
उस सभ्यता की बाहरी दीवार पर एक नन्ही गौरेया बैठी थी
वह भूख थी -
कोसी के मैदानों से इथियोपिया तक पसरी

भूख थी और अन्न की महिमा थी
वह हड़प्पा से चलकर हार्वर्ड तक
कुरू-पांचाल से कैम्ब्रिज तक आयी थी

भूख थी और भूख पर अनुसंधान थे
अनुसंधान सूर्य थे भूख धरती
यहाँ भी अनुपात वैसा ही था
एक अनुसंधान में हजारों भूख समा जाती

अनुसंधान भूख पर प्रकाश डालते
प्रकाशमान भूख एफ्रोदिते10 से भी खुबसूरत दीखती
भूख का वीभत्स रस श्रृंगार रस में रूपान्तरित हो जाता
यह एक क्रांतिकारी खोज थी
ऊर्जा रूपान्तरण की तरह यह रस रूपान्तरण के सिद्धान्त की पुष्टि थी

भूख थी और अन्न ब्रह्म था
एतावद्वा इदं सर्वमः
अन्नं चैवान्नादश्च11

अकाल था और खेतों मे लहलहाती बालियां थी
बन्दूकधारी वीभत्स चेहरे थे
और गांव का मनमोहक लैंडस्केप था
जो कविता से कैमरे और केबल टीवी तक छाया था
लाशें थीं
और गुनगुनाती धूप थी, सही एंगल्स थे, सलोने क्लोजअप्स थे
दूर कहीं तन्हा दुनिया में जाते लांग शॉट्स थे

नन्ही गौरेया की चोंच में फंसा अन्न का दाना
सूखी धरती की दरारों में कहीं खो गया था
समुद्र होता तो अगस्त्य उसे पी जाते
लेकिन यहां दरारें थी
जो ईसीजी की रेखाओं की तरह धरती पर खिंची थी
गोया धरती के भग्न हृदय की धड़कन ही सतह पर उभर आयी थी

विष्णु ने मूषकावतार लिया
खोद डाली उसने चैलेंजर डीप से गहरी सुरंग
अन्न का वह दाना नहीं मिला
लोगों ने ग्यारहवें अवतार की विफलता देखी
देखा भूख का दाह

चिड़ियाँ उड़ी - आग की लपटें उड़ाती
व्रात्यों की धरती से बैस्तील तक
पीटर्सबर्ग से चिङकाङशान पहाड़ों तक
वह उड़ी - उसके विशाल डैनों की फड़फड़ाहट से धरती कांपी
एंडीज से किलिमंजारो तक

विपन्न संसार
विद्रोही संसार
विध्वंसक संसार
नन्ही जान इसी संसार के गलियों-चौबारों में उड़ती रही
सभ्यता की वीथियों में उसने विचारों के अण्डे जने
सर्वे भवन्तु सुखिनः से सर्वहारा अधिनायकत्व तक
यरूसलम की रोती दीवारों से उसने करूणा के सुसमाचार सुने
टेम्स के किनारे भव्य डिपार्टमेण्टल स्टोर्स की सीढ़ियों पर
उसने बाजार की हकीकत देखी
रेगिस्तानी रास्तों पर
मुहम्मद बिन गजाली ने उसे पेट्रोडॅालर की दुनिया दिखायी

चार्ली चैप्लिन की फिल्मों से निकलकर वह कोसी किनारे
नचारी गाते भिखमंगे साधुओं के हुजूम में शामिल हो गयी
हे भोला बाबा केहन कयलौं दीन

युग बदले वह उड़ती रही
सर्पीले मार्ग पर कभी ऊपर कभी नीचे
कभी उत्तर कभी दक्षिण
कभी पूरब कभी पश्चिम
वह दिएन बिएन फू से उड़कर दोई मोई के जमाने में आ पहुंची12

आरंभ में अन्न था
अन्न का अभाव था
अभाव से वायदे थे/ वायदों की फसलें थीं

आरंभ में अन्न था
भाग्य से/ जन से/ अन्न से किये वायदे थे......

दरारों में छिपे अन्न के दाने और उस चिड़िया की चोंच के बीच
जनतंत्र का भूगोल था
उसने अपने स्ट्रेटेजिक और ट्रेड विंड्स थे
अपने स्ट्रेट्स और स्टेपीज थे
अपने वन्यजीव थे अपनी दुर्गम घाटियां थीं
अपने सिम्पेथी वेव्स थे
थे अपने शिकार और शिकारी

लेकिन मेरी नन्ही चिड़िया इन्सानियत का वह इतिहास थी
जनतंत्र का भूगोल कई जगह जिसकी विपरीत दिशा में जाता था

वह आकर बैठ गयी मेरे करीब
मैंने अपने किशोर कोमल हाथ उसकी ओर बढ़ा दिये
कहा -
मेरी इन भाग्य रेखाओं को देखो
रेखाओं का खेल नहीं है जीवन
वह तो काफ्का के किले की किसी अंधेरी कोठरी में
फाइलों की गुमनाम भीड़ में
या
लोककथाओं में अक्सर पाये जानेवाले
राक्षसों की मुट्ठियों में कैद है
इन बेमानी रेखाओं को कुरेदो
शायद तुम्हें अन्न का टुकड़ा मिल जाये/ और
मुझे अपनी रेखाएं खुद गढ़ने का बहाना

मेरे लहूलुहान हाथों से श्रम के नये बीज अंकुरित हुए
देखते-देखते मेरी सख्त हथेलियों पर उनके पौधे लहलहाने लगे
मेरी अनामिका के सिरे से निकली नील घाटी की नहर
चन्द्रमा के क्रेटरों से जा मिली
उभर आया मेरी हथेलियों पर श्रम का चर्तुआयामी रूप13
कृष्ण के विराट रूप की तरह

और सचमुच
मेरी रेखाओं के नीचे
खून से लथपथ अन्न का एक टुकड़ा था
बिल्कुल चन्द्रमणि की तरह

उसने फिर मेरे हृदय को कुरेदा
रक्तरंजित धमनियों से विद्रोह के बोल फूटे
संघम् शरणम् गच्छामि का उद्घोष हुआ
वहाँ अन्न का दूसरा टुकड़ा था
बिल्कुल नीलमणि की तरह

फिर बारी आयी मेरे मस्तिष्क की
सृजन की नयी तरंग निकली
वहां अन्न का तीसरा टुकड़ा था
बिल्कुल पारसमणि की तरह

श्रम संसार
हृदय संसार
सृजन संसार
चिड़िया अन्न का दाना पा प्रफुल्लमन इसी संसार में देर तक उड़ती रही
मैं बहता रहा बहता रहा बहता रहा
भूख से परे भी दुनिया थी
4.
मैं कश्यप और अदिति की संतान
द्वादश आदित्य
ऋष्यश्रृंग और उग्रतारा की धरती से
उग्रवाम/ उग्रकाम की आग में तपता बहता
न मालूम कितनी नदियां पार करता
कितनी पगडंडियां नापता
कितने गाँवों नगरों महानगरों की धूल फांकता
हजार-हजार चूल्हों की आंच
हजार-हजार हाथों के स्पर्श
हजार-हजार संकल्पों की शक्ति
हजार-हजार ख्वाबों के दृश्य दिल में लिये
हजार-हजार बलि का साक्षी
आज यहां बैठा हूँ विशाल स्तूप की दीवार से पीठ टिकाये
नार्थर्न ब्लैक पॉलिश्ड कटोरे में
सारिपुत्र को भिक्षा में मिले चावल के कुछ दाने लिये

मैं
सनातन भिक्षु
कभी कुछ मांगा नहीं
फिर भी दिया गया
थोड़ी सी रोटी थोड़ा सा साग
थोड़ी सी छत थोड़ी सी घूरे की आग
थोड़ी सी चांदनी थोड़ी सी रात
थोड़ा सा दिन थोड़ा सा प्यार
थोड़ा सा स्पर्श थोड़ा सा साथ
थोड़ा सा मान थोड़ी सी मुस्कान
इन्हीं टुकड़ों से मैंने बनायी एक रंगीन सुजनी
लेटकर उसपर मैंने बुना थोड़ा सा ख्वाब

टुकड़ों की भी चाहना होती है
और चाहने की कोई सीमा नहीं होती
मैं सनातन भिक्षु
इन थोड़े-थोड़े टुकड़ों को
अपने थोड़े-थोड़े ख्वाबों को भी
बार-बार गंगा में बहता आया हूँ
पूरी शिष्टता और संजीदगी के साथ
क्योंकि आज तक किसी ने नहीं देखी
विदाई के वक्त मेरी नम आँखें
मेरी चाहत का दीवानापन
मेरे जज्बातों का जुनून


कहीं भीतर पत्थर का पिरामिड है मेरे जिस्म में
उसका एक गुप्त द्वार है
कभी आना देखना कुछ भी ममिफाइड नहीं
सबकुछ सजीव है वहां
वही चंचलता वही चपलता
सासों की वही गरमाहट वही लय वही गति
वही मान वही अजनबीपन वही बेगानगी
वही मुस्कान वही अरमान
एक एक तह में ठहरा एक एक व्यतीत क्षण

मैं
सनातन भिक्षु
कभी कुछ मांगा नहीं
फिर भी दिया गया
ढ़ेरों बंदिशें ढ़ेरों अपमान
ढ़ेरों घाव ढ़ेरों निशान

बन्दूकें
घुप्प अन्धेरी रात में गोलियों की खौफनाक आवाज
चीख जो रह-रहकर तेज होती जाती
फिर एक उमसभरा गहरा सन्नाटा सबकुछ ढ़क देता
सलाखें
सलाखों से परे पागलों का विलाप
पागलों से परे लाशों का अम्बार
लाशों से परे गिद्ध और गिद्धों से परे
फिर वही स्याह शून्य आकाश सबकुछ ढ़क देता
सारा अन्याय सारा अत्याचार सारा आंतक सारा खून सारा साक्ष्य

एक अभिशप्त समय की मार
जब आदमी होना अपराध होता है
जब परिचय और सम्मान
बाथरूम की टाइल्स का, ओहदों की हदों का, भग्न किलों की ईंटों का
मोहताज होता है
अपरिचय का दंश
उपेक्षा और नफरत से भरी निगाहों की मार

कहीं भीतर एक स्वचालित वैक्यूम क्लीनर है मेरे जिस्म में
कभी आना देखना कुछ भी नहीं है वहां
न कोई गिला न कोई शिकवा
न कोई घृणा न कोई कटुता
प्रतिरोध की आग से नहीं चलता है मेरा तन
प्रतिहिंसा के भाव में नहीं रमता है मेरा मन
प्रतिक्रिया की भाषा नहीं जानता मेरा वचन

मैं सनातन भिक्षु
कभी कुछ चाहा नहीं
क्या कभी चाहा गया?
चाहने से भी बड़ी होती है चाहे जाने की तृष्णा
देखने से भी बड़ी होती है देखे जाने की चाहना
सुनने से भी बड़ी होती है सुने जाने की चाहना
कहने से भी बड़ी होती है कहे जाने की चाहना
समझने से भी बड़ी होती है समझे जाने की चाहना
आदमी होने से भी बड़ी होती है भीड़ से घिरे होने की चाहना

क्या तुम देखे गये?
क्या तुम सुने गये?
क्या तुम कहे गये?
क्या तुम समझे गये?
क्या तुम भीड़ से घिरे?

क्या किसी की आंखे तुम्हारी आहट से खुलीं
क्या किसी शकुंतला को तुम्हारी अंगूठी मिली
क्या कोई वासवदत्ता तुम्हारे स्वप्न में उतरी
क्या तुम लाल कालीन पर बिछे फूलों को रौंदते जयजयकार के बीच से गुजरे

जिन्दगी एक जलजला है
चाहने और चाहे जाने का
चाहने के जुनून और चाहे जाने के अन्तहीन इन्तजार का
मेरा साथी भिक्षु कांप उठा

क्या तुमने अपना कर्म किया सारिपुत्र
क्या तुमने अपना फर्ज निभाया
क्या तुमने वह देखा जो तुम्हें देखना चाहिए
क्या तुमने वह सुना जो तुम्हे सुनना चाहिए
क्या तुमने वह कहा जो तुम्हें कहना चाहिए
क्या तुमने भीड़ से घिरकर भी भीड़ के उन्माद का शमन किया

चाहने और चाहे जाने की तृष्णा का शमन किये बिना
तुम यह कर भी कैसे सकते
जीवन-तृष्णा और जीवन-कर्म
दोनों सच हैं
सबका समय है सबकी सीमा है
एक व्यक्ति को चलाती है दूसरी सृष्टि को
अपना मार्ग चुनो
अपने मार्ग पर चलो
चुनने और चलने का साहस करो तुम


इसी आत्ममंथन में बीत गया चातुर्मास्य
मैं स्तूप से निकलकर नीचे उतरा
वहां सिमटी सिकुड़ी कंडेन्स्ड दुनिया थी
जिसे पैदल भी कुछ ही घंटों में नापा जा सकता था
5.
मस्तिष्क की सृजनशक्ति का चमत्कार थी यह दुनिया
सामने सगरमाथा शिखर पर एक रिवाल्विंग कैफेटेरिया था
बैठे थे जिसमें ऑक्सीजन मास्क लगाये कई भद्रजन
गगनचुम्बी इमारतें थीं कतारों में खड़ी
जगमगाती सड़कें थीं चिकनी चौड़ी
दौड़ रही थीं उन पर सुपर कंडक्टर इंजिन से युक्त गाड़ियां

जगह जगह लगे म्यूजिक सिस्टम से
कार्लोस गार्डेल के रचे जिंगल्स की धुन बज रही थी
थिरक रही थीं जिनपर सायमा झील के किनारे
वृत्ताकार खड़ी उरांव लड़कियां

विक्टोरिया जलप्रपात के किनारे
डॉन जुआन ने खोल रखा था सेविल के सिल्क शॉल का शो रूम

जोविक के भूमिगत आइस हॉकी स्टेडियम में14
एल्विस प्रिस्ले गा रहे थे मुंडारी गीत
नोरोजोनोम बरसिड़ नांगिन
लंदा जगर हिरती-पीरती
ने जीवोन गतिड़................
ने जीवोन काहो बदलाओं
कुंबर चाटु पोवा जान रे
कुंबर तात का रूबाड़ा
ने जीवोन गतिड़
ने जीवोन का ही नमोगा.........15
भीड़ पागलों की तरह झूम रही थी

कोवलम बीच पर
एक हंगारी बेलेरीना सबको मंत्रमुग्ध किये थी
उधर अमेजन के जलमहल में
वसंतसेना प्रस्तुत कर रही थी मोहिनी अट्टम

सजी सजायी जगमग करती यह दुनिया
सचमुच एक टेक्स्टबुक दुनिया थी
सबकुछ का अपना नियत समय था, सब कुछ की अपनी नियत जगह थी
हर काम के अपने अंदाज थे, अपनी भाषा थी
अपने संकेत थे, अपने नियत लोग थे, अपनी आचार संहिता थी
अपने कर्मकांड थे, अपने अछूत थे, अपने म्लेच्छ थे
अपने काफिर और अपने हेरेटिक थे
यह मनुष्य की अपनी सृष्टि थी

विज्ञान का चमत्कार था और दुनिया एक थी
बच्चे एक ही गीत गाते
एक ही किताब पढ़ते, एक ही फिल्म देखते
उनके नायक खलनायक एक थे, उनके खिलौने एक थे
उनके अभिवादन की शैली एक थी
उनके हंसने-मुस्कुराने-बतियाने के अंदाज एक थे
बस्तों के बोझ से उनकी पीठ एक जैसी ही झुकी थी
टेक्स्टबुक दुनिया के वे टेक्स्टबुक बच्चे थे

बड़ों की आकांक्षाएं/ उनके सपने एक थे
उन्होंने अपनी एकता बच्चों पर थोप दी थी
विकसितों की आकांक्षाएं/ उनके सपने एक थे
उन्होंने अपनी एकता अविकसितों पर थोप दी थी
मनुष्यों की आकांक्षाएं/ उनके सपने एक थे
उन्होंने अपनी एकता प्रकृति पर थोप दी थी

दुनिया एक थी
उसे सिर्फ बच्चों की अनुशासनहीनता
अविकसितों के आक्रोश
प्रकृति के प्रकोप से खतरा था

टेक्स्टबुक दुनिया थी
और उसका सर्वोत्कृष्ट टेक्स्टबुक उत्पाद थे नवमानव
जो विज्ञानकथाओं और कॉमिक्स की किताबों से निकलकर
हकीकत बन चुके थे

कम्प्यूटर सिमुलेशन, जेनेटिक्स और रोबोटिक्स की
नवीनतम सृष्टि थे ये विलक्षण जीव
मनुष्य से अधिक दक्ष
अधिक तेज
उनके मस्तिष्क के एक कोने में
इमली के दाने जैसे डिस्क में
सारी सूचनाएं सारा पुस्कालय सारा शब्दकोश था
उनकी संतति सबकुछ ग्रहण करती जाती वंशानुगत
वे खाते थे धूप, पीते थे समुद्र का खारा जल
ध्वनि और वायु प्रदूषण था उनपर बेअसर
अपनी बाह्य ओजोन त्वजा की बदौलत
वे चिलचिलाती धूप में भी मजे से काम करते
वे नयी धरती के नये मानव थे
दर्शन के सारे सवाल जिनके लिए
बस सिंटेक्टिकल सवाल थे16

इन नवमानवों और मानवों में बस एक ही फर्क था
नवमानवों के पास मन नहीं था
इसलिए मनजनित भी कुछ नहीं था
अय, सर, व्हेयर लाइज दैट (कांशन्स) ? आइ फील नॉट
दिस डीइटि इन माइ बूजम........17

इस दुनिया की अपनी बीमारियां थीं/ अपने उपचार थे
सबसे नयी बीमारी थी कम्प्यूटर रेबीज
जो कम्प्यूटरों के एक रसायन के
मानवरक्त के संसर्ग में आने से होती थी
इस बीमारी से ग्रस्त लोगों को देखकर
लोग कहते है - इसे कम्प्यूटर ने काटा है
ओर ऐसे लोगों की तादाद कम न थी

टेक्स्टबुक दुनिया थी
टेक्स्टबुक बच्चे थे
टेक्स्टबुक लोग थे
टेक्स्टबुक प्रकृति थी

वन नहीं थे, पार्क थे
पेड़ नहीं थे, विभिन्न ज्यामितीय आकारों में कटी-छंटी वनस्पतियां थीं
वन नहीं थे तो वन से जुड़ी कहानियां भी नहीं थीं
त्योहार भी नहीं थे
वन एक रहस्य था बरमूडा त्रिकोण की तरह
जहां राजकुमार अक्सर गुम हो जाया करते
फिर बहुत दिनों बाद राजधानी लौटते
ब्रह्मर्षि बनकर
बुद्ध बनकर
या कादम्बरी को साथ लेकर

तितलियाँ नहीं थीं
तितलियों के पीछे भागते बच्चे नहीं थे
तितली रानी तितली रानी की जगह
लंदन ब्रिज इज फालिंग डाउन ने ले ली थी

गांव नहीं थे
इसलिए गांव की औरतें भी नहीं थीं
लूव्र संग्रहालय में लोग उन्हें देखते
और उन्हें अमृता शेरगिल की औरतें कहते

मौसम नहीं थे
इसलिए औरतें नहीं गाती थीं बारहमासा
फागुन हे सखि सब रंग बनायल
खेलत पिया के संग हे
ताहि देखि मोरा जियरा ज तरसय
काहि पर डारू हम रंग हे

खंजन नहीं आते थे
इसलिए कोई खंजन-नयन भी नहीं था

दुनिया एक थी
उसके नीचे दफ्न थी कई बहिष्कृत/ विस्मृत दुनियाएं
यह बहिष्कृत/ विस्मृत दुनिया बार-बार सिर उठाती
लोककथाओं में/ लोकगीतों में/ लोकनायकों में
आकाश से आहिस्ता-आहिस्ता उतरती उर्वशी
मनुष्यलोक में चार शरदों की रातें बिताकर
थोड़ा सा घी चखकर पुत्र जनकर
फिर लौट जाती स्वर्गलोक में - प्रथम उषा सी
अपनी समुद्री यात्राओं में बार-बार भटक जाता सिन्दबाद
पनाह लेता अज्ञात द्वीपों में
जहां विशालकाय बाज अपने पंजों में लेकर उड़ते
उतने ही विशालकाय सांप
पाताललोक में बैठा ओसिरिस18
स्वप्नलोक की आत्मा
मां इश्तर
सब रखते लेखा-जोखा हमारे कर्मों-दुष्कर्मों का
सुखावती का अमिताभ
कितने जन्मों, कितनी कहानियों से गुजरकर
धारण करता निर्माणकाया, बनता सिद्धार्थ गौतम
कार्तिक पूर्णिमा को शापमुक्त होती सामा
वह लड़की अब भी चलनी में भरकर लाती पानी
विदेश में भटकते जिसके सात भाई
कटैया के जंगल में मारा जाता
जोगिआ जांजरि का दीना भद्री
गदहे पर नसरूद्दीन अब भी घूमता
सम्राट की मूर्खता पर बीरबल हंसता
लोग अवाक हो देखते तेनाली रामा का न्याय
आते गोनू ओझा के पास पूछने
खेतों की रखवाली का उपाय.......

फिर अचानक आता डोनाल्ड डक
उसके विशालकाय पंखों में ढक जाता सबकुछ
सारा का सारा सिन्दबाद सारी की सारी उर्वशी
सारा का सारा लोकमन सारी की सारी लोकबुद्धि
सारा स्वर्गलोक सारा स्वप्नलोक
सारा मर्त्यलोक सारा लोकलोक

विज्ञान से दुनिया एक थी
पाताल में केबल्स
धरती पर माइक्रोवेव टावर्स
अन्तरिक्ष में सेटेलाइट्स
इस एकता के प्रतीक थे

लेकिन
मन से दुनियां बंटी-बंटी थी
विल्नियस से बेरूत तक
सारायेवो से लॉस एंजेलिस तक
पाटलिपुत्र से प्रिटोरिया तक
एक खूनी युद्ध था
जो कबीलों से पृथ्वी सम्मेलन के युग तक
वसुधैव कुटुम्बकम् से विश्वनागरिक के जमाने तक
अनवरत चलता आ रहा था

दुनिया एक थी और युद्धरत थी
एक जैसी स्वचालित राइफलें थीं, एक जैसे नकाब थे
एक जैसी टैंकभेदी मिसाइलें थीं, एक जैसे रॉकेट लांचर थे
एक जैसे बम गिरते, एक जैसी इमारतें गिरतीं
हर जगह हरेक मां एक जैसी ही छाती पीट पीटकर रोती
बच्चे एक जैसे ही दम तोड़ते
दुनिया एक थी और युद्धरत थी

दैन डू यू, ओ टाइरियन्स, पर्स्यू हिज सीड विद योर हेट्रेड
फॉर आल एजेज टु कम, ........लेट नो काइंडनेस नॉर ट्रूस बी
बिटवीन द नेशंस.........आइ इन्वोक द एनमिटि ऑफ शोर
टु शोर, वेव टु वाटर, सोर्ड टु सोर्ड, लेट देअर बैटल्स गो
डाउन टु देयर चिल्ड्रेन्स चिल्ड्रेन19

सहसा चांद से एक लड़की उतरी
नीलाभ ट्यूब टॉप पर सी-थ्रू फ्लोरल ब्लाउज पहने
हाय कहती हुई वह मेरे करीब आ गयी
हम साथ-साथ चल सकते है - मुस्कुराकर कहा उसने

घबडा़ना नहीं, मैं कुछ नहीं पूछूंगी
कौन हो कहां से आ रहे हो कहां जाओगे कुछ नहीं
होना आना जाना ये शब्द मेरे शब्दकोश में नहीं
हम अभी साथ-साथ चल रहे हैं क्या इतना ही पर्याप्त नहीं

उसके घने लम्बे बाल थे आकाश में लहराते
वनहीन धरती पर थे वन का आभास देते
ग्रीनहाउस प्रभाव के विरूद्ध अकेले जूझते

तुमने जो देखा वह शब्दों का कहर है
शब्द और कुछ नहीं पाखण्ड का सफर है
पाशविक हैं हमारी मूल वृत्तियां
छिपाती उन्हें शब्द की अठखेलियां
सभ्यता की हमारी, उम्र जितनी बढ़ती गयी
शब्द के शॉल में उतनी वह लिपटती गयी

उसने पर्स से एक पाउच निकाला, कहा/ बदन के खुले हिस्से पर यह
क्रीम मल लो/ पराबैंगनी किरणों से बचायेगी तुम्हें/ जबसे ओजोन की
परत छीजने लगी है/ इसे लगाये बिना लोग नहीं निकलते/ बाजार में
इसकी कई वेरायटियां हैं/ लेकिन यह मेरा पसंदीदा है/ क्योंकि इसमें
है रातरानी की खुशबू/ रातरानी जो अब कुछेक वनस्पति उद्यानों को
छोड़ कहीं नहीं मिलती

कुल का गौरव, रक्त की पवित्रता
राज्य का हित, जन की अस्मिता
राष्ट्र का उत्थान, जनता का तंत्र
न्याय का शासन, अहिंसा का मंत्र
धर्म का पालन, सभ्यता का प्रसार
वंचितों का हक, शान्ति का प्रचार
ऐसे ही शब्दों की आड़ में
दाशराज्ञ युद्ध से ऑपरेशन डेजर्ट स्टॉर्म तक
हमने कितनी वीभत्स लड़ाइयां लड़ीं
धन के लिए, स्त्री के लिए, सत्ता के लिए
शब्द ज्यों ज्यों परिष्कृत होते गये
युद्ध उतने ही भयंकर होते गये
संहार उतने ही प्रलयंकारी होते गये
नरमुंड़ो के ढ़ेर उतने ही ऊँचे उठते गये

पत्थर के औजारों से प्रक्षेपास्त्रों तक
यही है आदमजात का सफरनामा
गुफाओं में शिकार की चित्रलिपि से ब्रीफकेस में बन्द न्यूक्लियर कोड तक
यही है हमारी भाषा की विकासयात्रा
हां बीच-बीच में ऋचाएं हैं, काव्य हैं
भास हैं, कालिदास हैं
कहानी औ उपन्यास हैं
शेक्सपीयर हैं, इब्सन हैं
गोएठे और इमरसन हैं
लेकिन वे हमारे पशुत्व के बारे में सिर्फ भ्रम जगाते हैं
कुशन हैं वे जिनपर हमारे वहशी भाव विश्राम पाते हैं
हम वही हैं जो थे - पाखण्डी पशु
स्वार्थी, हिंस्र, बर्बर, रक्तपिपासु

ह्यूमनकाइण्ड इज अ ‘कंग्रीगेशन ऑफ हिपोक्रिट्स
दे कन्सीव मिस्चीफ, एण्ड ब्रिंग फोर्थ वेनिटी, एण्ड देयर बेली
प्रिपेयरेथ डिसीट20

लोग हुए
महात्मा, मसीहा और पैगम्बर हुए
जिन्होंने शानदार शब्द रचे-गढ़े
उन शब्दों के अनुरूप खुद ढ़ले
कोशिश की कि दुनिया भी ढ़ले
लेकिन सब के सब व्यर्थ गये

हमारा पशुत्व सच है अपरिवर्तनीय
उनके प्रयास झूठ है अविस्मरणीय

सबके अनुयायियों ने पहन रखी है नरमुंडों की माला
वे अब पाते हैं नारकोटिक्स से निर्वाण
गणिकाएं जिन्होंने ली थीं परिव्रज्या तथागत के हाथों
डालरों में बिकती हैं शेख के हाथों
महानगरों में कॉमशियल सेक्स वर्कर्स कहलाती हैं

सभी फेंकते पत्थर दूसरे पर
कोई नहीं झांकता अपने भीतर

पुरामानवों से नवमानवों तक
मानवजाति ने पूरा कर लिया है अपना एक च्रक
महात्माओं ने गढ़ना चाहा था
निस्वार्थ सत्यनिष्ठ नया आदमी
लोगों ने गढ़ा एक दूसरा नया आदमी
एक टेक्स्टबुक पालतू पशु
शायद दोनों जरूरी हैं/ पूरक हैं
लेकिन रक्त्पिपासु पाखण्डी पशुओं के हाथों
टेक्स्टबुक पालतू पशु
प्रलय के संकेत हैं

वह एक पब्लिक टेलिफोन बूथ में घुस गयी/ कुछ बटन दबाये
कुछ संदेश दिये/ थोड़ी देर बाद कुछ वाहन आये/ वह बैठ गयी
गाड़ी में, कहा/ कल फिर मिलूंगी पृथ्वी सभागार में
6.
टी ब्रेक21
कविता में गद्य का प्रवेश
(सिर्फ थर्टी प्लस लोगों के लिए)

मॉम, आइ नो
आइ नो
यू आर वरिड अबाउट माइ डेटिंग्स
माइ लाइफस्टाइल एण्ड माइ फ्रेण्ड्स
बट मॉम
आइ डु नोट होल्ड द ओल्ड जेनरेशन इन हाई एस्टीम ईदर

दिस बॉडी इज रीअल
एवरीथिंग एल्स इज इफेमेरल
वन नीड्स टु कीप हिज/ हर बेली फुल
एण्ड लिबिडो सैटिस्फाइड
टु स्टे फिट एण्ड इफीशिएण्ट एट हिज/ हर वर्कप्लेस
ह्यूमनकाइण्ड, मॉम, इज बाइ नेचर प्रोमिस्कुअस
मेन एण्ड वूमेन मैरी ट्वाइस, थ्राइस, फोर टाइम्स........इन देअर लाइफटाइम
एण्ड देन देअर आर प्रीमैरिटल एण्ड एक्स्ट्रामैरिटल रिलेशंस
एण्ड देअर आर लेस्बियां एण्ड गे क्लब्स
एण्ड एब्यूजेज एण्ड रेप्स
एण्ड इरोटिक ऑडियो-विजुअल गैजेट्स
एण्ड इन्फ्लैटेब्ल लाइफसाइज डॉल्स एवेलेब्ल इन द मार्केट.......

हयूमनकाइण्ड्स सेक्सुअल बिहेवियर, मॉम, इज वर्स दैन एनिमल्स
एण्ड इफ यू सप्रेस योर नेचुरल अर्जेज
यू हैव अ होस्ट ऑफ कम्प्लेक्सेज एण्ड कम्प्लिकेसीज
ईडिपस, एलेक्ट्रा, यमी, भीष्म......
एंक्जाएटी न्यूरोसिस, सैडिज्म, मैजोकिज्म, सैडो-मैजोकिज्म, मैटल डिसॅाडर्स......
अ होल रेस ऑफ किलनिसिस्ट्स थ्राइव ऑन आवर हिपोक्रिसी
ऑन आवर फाल्स सेन्स ऑफ सिन एण्ड कंडेम्नेशन

सिमिलरली मॉम
ड्रेस, लाइक सिविलाइजेशन, इज द बिगिनिंग ऑफ आवर हिपोक्रिसी
एवरीन नोज व्हाट इज हिडन इन द क्लॉथ्स
हेंस हाइडिंग इज हिपोक्रिसी
ड्रेस इज नोट अ मीन्स टु हाइड, मॉम
इट्स अ मीन्स टु एक्सपोज वन्स बॉडी इन अ मोर एट्रैक्टिव मैनर
कीपिंग इन व्यू द ओकेजन, लैंडस्केप, सीजन, मूड एण्ड वन्स ओन फीगर
इट डिपेण्ड्स ऑन यू व्हेदर यू एक्सपोज योर ब्रेस्ट्स, वेस्टलाइन ऑर प्यूबिक हेअर

लाइक टैक्स हैवेन इन द आइल ऑफ द मैन एण्ड केमैन आइलैण्ड्स
हयूमनकाइण्ड हैज सिंस लांग क्रिएटेड इट्स ओन सैक्स हैवेन्स
आइ अम जस्ट कमिंग फ्रॉम ल’ ट्रेपीज मॉम

मेन रिड्युस्ड अस टु थर्टी सिक्स ट्वेंटीफोर थर्टी सिक्स सेक्स सिम्बॅल्स
एण्ड सी मॉम, व्हाट वी हैव डन टु देम
वी रिड्युस्ड देम टु थर्टी सिक्स........
चॉपर, लव ट्रंचन, डोंगर, ज्वाय स्टिक एण्ड द लाइक........

द एज ऑफ आर्टिफीसिअल यूटेरस इज इन मॉम
एण्ड वी हैव बीन फ्रीड फ्रॉम द बर्डेनसम टास्क ऑफ कन्सीविंग
इट इज नाउ हाइ टाइम टु डिसॉलव द इंस्टीट्युशन ऑफ मैरिज, मॉम
द प्रॉब्लेम ऑफ इन्हेरिटेन्स इज मीनिंगलेस
नोबॉडी इज एनीबॅडीज एअर
एवरीबॉडी इज हिज ओन क्रिएशन
द डे ऑफ इमोशनल टाइ इज नाउ ओवर

सी मॉम
हाउ मच सोशली नेसिसॅरी लेबर टाइम हैज बीन वेस्टेड बाइ द ह्यूमनकाइण्ड
इन राइटिंग, रीडिंग, इनैक्टिंग
फाल्स, सेल्फ डेल्युडिंग लव स्टोरिज, लव सांग्स, एण्ड लव प्लेज
इन दैट लेबर टाइम वी वुड हैव बिल्ट ऑवर कॉलोनीज ऑन मार्स

मॉम, हाउ मेनी एक्स्ट्रा मैरिटल रिलेशंस हैव यू इन योर लाइफटाइम
टेल योर सेक्स सीक्रेट्स एण्ड इनलाइटेन योर डॉटर
आइ अम नाउ इंडिपेंडेंट ऑफ यू एण्ड ऑफ एवरीथिंग
कम ऑन मॉम, डांट बी सिली
शेयर दिस फ्रीडम विद मी
सेक्स इज अ बायोलॉजिकल निसेसिटी मॉम, अ बेसिक इन्सटिंक्ट
अ हैण्डीवर्क ऑफ सर्टेन केमिकल्स विदिन अस, एण्ड जस्ट दैट मॉम

व्हाट मॉम, आइ अम गेटिंग आब्सीन?
नो मॉम, नो
आब्सीनिटी इज रिजर्व्ड फॉर द नेटिव लैंग्वेजेज सिंस द डे ऑॅफ मैकॉले
देअर इज नथिंग आब्सीन इन इंगलिश

वह लड़की सभागार के एक कोने में बैठी थी
उसने आज हल्के गुलाबी रंग का फिशनेट ओवरब्लाउज पहन रखा था
मानव-भ्रूण से बने कॉस्मेटिक्स से उसका चेहरा दमक रहा था
अंधेरे में होने के कारण उसकी मां का चेहरा साफ दिखाई नहीं पड़ रहा था

ओ, तुम आ गये
मां, पूछो इससे
हर पुरूष चाहता है प्रलय
चाहता है सारी दुनिया डूब जाए
और वह बचा रहे
चाहता है विसुवियस बार-बार फटे
और उसके मलबे से सारा शहर सारा गांव सारा जीवन ढ़क जाए
सिर्फ वह बचा रहे
चाहता है एक प्रलयंकारी भूकम्प जिसमें सबकुछ नष्ट हो जाए
सिर्फ वह बचा रहे
और बची रहे कुछ स्त्रियां
ताकि वह आदिमानव बन
फिर से रचे सृष्टि

हर स्त्री चाहती है सब कुछ समा जाए उसमें
सारे पहाड़, सारा जंगल, सारी नदियां, सारे समुद्र, सारे मनुष्य, सारा जीवन
फिर भी कुछ खत्म न हो
एक अनन्त कृष्ण विवर होना चाहती है हर स्त्री
जब यह चाहना उग्र हो उठती है
तब मैं महसूस करती हूं अपने भीतर एक नरभक्षी
टेलीविजन का स्वीच ऑन कर देखने लगती हूं ‘द साइलेंस ऑफ द लैम्ब्स’22

मां, महाभारत में मुझे क्या अच्छा लगता है, जानती हो
धृतराष्ट्र आलिंगन
बोलो मां, क्या तुम भी ऐसा महसूस करती हो

मां, हर स्त्री के पतन के पीछे एक पुरूष होता है
मर्यादित पुरूष
बट आइ एम नॉट अ फॉलेन वूमेन मॉम
आइ नो हाउ टु सरवाइव एण्ड थ्राइव इन दिस एनिमल किंगडम
आइ नो हाउ टु एनज्वाय लाइफ मॉम
आइ वांट टु बी द वूमेन बिहाइंट द फॉल ऑफ मेनी अ मेन

बट मॉम, व्हाइ आर यू नॉट रेस्पॉण्डिंग

? ? ? ? ? ? ? ?
! ! ! ! ! ! ! ! ! !

डिअर, योर मॉम इज डेड
डेथ इज हर रेस्पांस

नो, वह चीख उठी
सभागार में थोड़ी हलचल हुई

अ टाइ हैज ब्रोकन डाउन
यू आर इंडिपेंडेंट ऑफ योर मदर
नाउ योर मदर इज इंडिपेंडेंट ऑफ यू
अ कम्यूनिकेशन हैज ब्रोकन डाउन
योर क्राइ इज द लास्ट वर्ड

या डिअर, योर मॉम इज डेड
बट रिमेम्बर मदर इज अ डेथलेस केटेगॅरी
या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः

व्हाट! यू आर टॉकिंग इन सेंस्कृट
इट्स रीअली नाउसिएटिंग फॉर मी
इट रिमाइण्ड्स मी ऑफ द फैटेण्ड पंडाज ऑफ बेनारस
ऑफ लीपर्स एण्ड बेगर्स, ऑॅफ डर्ट एण्ड फिल्थ एण्ड बैड स्मेल ऑल अराउण्ड
आइ हेट दिस लैंग्वेज

बट हैड यू बीन एक्वेंटेड विद दिस लैंग्वेज
यू वुड हैव लाइक्ड इट
इट इज द मोस्ट पावरफुल लैंग्वेज ऑफ द लिबिडो

इसी बीच वह फिर चिल्लाने लगी
माइ मॉम माइ मॉम

यस, शी इज नो मोर
योर डिफाएन्स वाज सुपर्ब
हर डेथ सब्लाइम
डिअर, डेथ इज नॉट अ पैसिव बट एन एक्टिव एजेंट
एण्ड आवर एक्जिस्टेंस इज अ सिंथेसिस ऑफ डिफाएन्स एण्ड डेथ
थिंक ओवर बोथ द डिफाएन्स एण्ड द डेथ
थिंक ओवर इट डिअर, थिंक

वह रोने लगी
सभागार में मौजूद छः अरब लोग रोने लगे
वे सदियों तक रोते रहे
उनके आंसुओं से एक सागर बना
वह मृत सागर कहलाया
7.
समय जब अल्हड़ होता है
शरीर की एक-एक कोशिका एक-एक ज्वालामुख
जिन्दगी जब काटे नहीं कटती
नींद के पहले और नींद के बाद
किसी का ख्याल जब हटाये नहीं हटता
बातें जब कभी खत्म नहीं होतीं
हृदय जब मीठा-मीठा डर होता है
अपना पूरा वजूद ही जब किसी के अंग-अंग में घुल जाता है
किसी के प्रभामंडल की आंच में मन जब शीतल-शीतल हो जाता है
दिल जब किसी की आहट
किसी की आवाज
किसी की पलकों के उठने से अज्ञात
अव्यक्त
अकल्पनीय धड़कन बन जाता है
तब एल डोराडो में भी कांदिद को चैन नहीं मिलता
कुनेगुन ही सबसे बड़ा सच होती है23
तब फलसफे भी सुकून नहीं पहुंचाते
‘.............................हैंग अप फिलॉसॅफी!
अनलेस फिलॉसॅफी कैन मेक अ जूलियट ’24

तब प्रवाह थम जाता है
रह जाता है भंवर/ तुम्हारी परिक्रमा
क्षण नित्य हो जाता है
सापेक्ष निरपेक्ष
विज्ञान और तर्क के सारे नियम तुम्हारे कदमों में होते हैं

मेरा प्रवाह भी थमा है
बात सिर्फ इतनी ही है कि
मैंने प्यार किया है
मैंने प्यार कर त्याग किया
त्यागकर प्यार किया है
मैंने प्यार कर त्यागकर प्यार किया
त्यागकर प्यारकर त्याग किया है
उसे
जिसे मैंने बार-बार देखना चाहा
पर देख न सका
दृश्यसुख से वंचित

जिसे मैंने बार-बार सुनना चाहा
पर सुन न सका
श्रव्यसुख से वंचित
जिसे मैंने बार-बार छूना चाहा
पर छू न सका
स्पर्शसुख से वंचित........

वंचनाओं की भूमि पर खड़ा मैं
जानता हूं इन सारे सुखों का मर्म
हां सिर्फ मैं
सनातन प्रेमी

मूक ही जानते है वाणी का सुख
वधिर ही जानते हैं श्रवण का सुख
अन्धे ही जानते हैं दृश्य का सुख
वैरागिनी मीरा ही जानती है कृष्णासक्ति का सुख

दुख जानता है सुख
विरह जानता है मिलन
इकाई जानता है अनन्त
संतानहीन परित्यक्त गंगा लिखती है कोहबर, अहिबातक दीप, जीवन-चक्र25

हां वंचनाओं की भूमि पर खड़ा मैं
मैं ही जानता हूं प्यार का मर्म

वंचना है तो रहने दो
तभी तो महसूस करूंगा तुम्हें रोम-रोम में
क्षितिज है तो रहने दो
तभी तो खत्म नहीं होगा कभी क्षितिजपटी के पार का रहस्य
प्रवाह थमा है तो थमा ही रहने दो
तभी तो परिक्रमा हागी/ डूबना होगा अज्ञात गह्वर में
परिक्रमा होगी तो मौसम होंगे वसन्त होगा
फूल होंगे जीवन होगा
अदृश्य है वह तो रहने दो
तभी तो सपनीली चितवन होगी/ अपलक देखना होगा
तभी तो बातें होंगी वादे होंगे अन्तहीन सिलसिला होगा
तभी तो जब वह करीब से गुजरेगी तो मलयपवन गुजरेगा
तभी तो मेरी कविता होगी और मैं सनातन प्रेमी होऊंगा

वह रो चुकी थी और मेरे सामने खड़ी थी
मैंने पहली बार उसे देखा भरपूर निगाहों से
माधव की कहब सुन्दर रूप! 26

हैलो ब्राइटनेस, माइ ओल्ड ऑब्सेशन,
आइ हैव कम टु टॉक विद यू अगेन! 27

वंचना कभी वांछित नहीं हो सकती
वंचना कभी महिमामंडित नहीं की जा सकती
स्त्री से भागो मत
उसे देखो/ उसे सुनो/ उसे छुओ/ उसे समझो

अन्यथा
हर युग में भारती तुम्हें शास्त्रार्थ में हराएगी
बार-बार परकायाप्रवेश के लिए तुम्हें विवश करेगी
स्त्री से भागो मत उसे साधो

वह आज बदली-बदली सी थी
उसकी मां नहीं थी सभागार नहीं था
वह थी बदली-बदली सी

इस दुनिया में
सनातन प्रेमी होना आसान है
यथार्थ प्रेमी होने से
एकान्त प्रेम आसान है
परस्पर प्रेम होने से
प्यार करना आसान है
प्यार पाने से

याचना नहीं होती कोशिश पाने की प्यार
वह तो स्त्री पुरूष का है नैसर्गिक अधिकार
तुमने त्यागा है अपना अधिकार
केसे पाओगे भला स्त्री का प्यार

या फिर
स्त्रियों ने कर रखा है तुम्हें वंचित प्यार पाने के अधिकार से
और तुमने उसे कर लिया है चुपचाप स्वीकार?
उठो अपने अधिकार को अभिव्यक्ति दो
मैं खामोश रहूंगी तुम बोलोगे
मैं खामोशी का हक लूंगी तुम अभिव्यक्ति का मान लो

देअर बी थ्री टाइम्स, डिक, व्हेन नो वूमेन कैन स्पीक
ब्यूटीफुल टाइम्स........28

8.
भूख, काम और मस्तिष्क के त्रिशूल पर खड़ी है यह दुनिया
मैंने भूख की हकीकत देखी
काम का क्रीड़ाङ्गण देखा
मस्तिष्क की सृष्टि देखी

भूख, काम और मस्तिष्क के त्रिशूल पर खड़ी है यह दुनिया
जब बिगड़ता है इनका संतुलन तब भूचाल आता है
और यह भूचाल अनवरत चलता आ रहा है
किसने देखा है संतुलित आदमी/ संतुलित दुनिया?

भूख से अपराध थे
काम से व्यभिचार थे
मस्तिष्क से विध्वंसक साजिशें थीं
दुनिया अपराध, व्यभिचार और साजिशों की दुनिया थी

भूख से बाजार था
काम उस बाजार का श्रृंगार था
मस्तिष्क उसका बिजनेस कंसल्टेण्ट था
दुनिया एक विशाल मंडी थी
जहां सबने कुछ-न-कुछ या सबकुछ दांव पर लगा रखा था
किसी ने धन, किसी ने दिल, किसी ने विचार

बाजार था और सौदे थे
एक मित्र ने एक बार दिल की फॅारवार्ड ट्रेडिंग की थी
पिटी स्क्रिप बदला स्टोन चिप्स पर दांव लगाया
दूसरे ने एक विचार चुना था
विचार की वह पोनी रेस हार गयी
दूसरे सीजन में उसने पोनी बदल ली थी
दुनिया इसी तरह घाटा-मुनाफा, बुल -बिअर की आंख-मिचौनी खेलती रहती थी

भूख, काम और मस्तिष्क का बाजार थी दुनिया
बाजार से दुनिया एक थी
लेकिन यह विविधता में एकता थी
अलग-अलग बाजारों में
भूख, काम और मस्तिष्क का
पी बटे ई अनुपात29 अलग-अलग था
कहीं भूख से ज्यादा मुनाफा था, कहीं काम से, कहीं मस्तिष्क से
कहीं भूख की साख ज्यादा थी, कहीं काम की, कहीं मस्तिष्क की
फिलवक्त तो दुनिया खुद एक ब्लूचिप स्क्रिप थी

इस दुनिया के अपने बेकार माल थे/ अपने कचरे थे
पुरूषार्थ, ईमान, कर्त्तव्यबोध, प्रायश्चित जैसे शब्दों के
कोई खरीददार नहीं थे
एक प्रतिनिधि सभा ने तो इन शब्दों को
शब्दकोश से हटा देने का विधेयक तक पारित कर दिया था
उसके वैज्ञानिकों ने कचरों को डम्प करने की जगह भी तलाश ली थी
न्यूक्लिअर कचरे की तरह ये कचरे भी रेडियोधर्मी थे
इन्हें सतर्कता से ठिकाने लगाना था
रात में शत्रु के खिलाफ किये गये सैनिक मुहिम की तरह
क्लाउजेवित्ज की हिदायतों के अनुरूप.....
हां इस दुनिया के अपने शत्रु थे, अपने एनकाउण्टर थे, अपने डर थे.....

भूख से श्रम था
काम से निष्काम प्रेम था
मस्तिष्क से उदात्त सृजन था
दुनिया श्रम, प्रेम और सृजन की दुनिया थी

श्रम से शरीर था/ व्यक्त्वि था
प्रेम से मन था/ पहचान थी
सृजन से सक्षमता थी/ संतत-प्रवाह था/ संस्कृति थी


भूख, काम और मस्तिष्क की संतानों में महासमर छिड़ा था
और दुनिया कुरूक्षेत्र थी
जो हमारे अन्तर्मन से अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं तक फैली थी
किसी ने नहीं देखा था युद्ध का आरंभ
और युद्ध तो अब भी चल रहा था

महासमर था
हमारा व्यक्तित्व/ हमारी पहचान/ हमारी संतति/ हमारी संस्कृति
सब कुछ क्षत-विक्षत था

मैं था और वह लड़की थी
त्रिशूल पर अर्धनारीश्वर की मुद्रा में खड़े थे हम
सहसा कहीं कुछ हुआ
क्या तुमने कुछ महसूस किया
उसने कहा हां
क्या तुमने कुछ सुना
उसने कहा हां
हम सहसा हंसने लगे जोर से और जोर से
अन्तरिक्ष में हमारी हंसी गूंज उठी
फिर भी किसी ने नहीं सुनी हमारी हंसी अर्धनारीश्वर की हंसी

जब एकमक हो जाती है नर और नारी की हंसी
तब कुछ अघटित घटता है
विश्रृंखलता श्रृंखला पाती है
या कोई श्रृंखला किसी विश्रृंखल बियावान में खो जाती है
कुछ होता है
इकाई या तो अनन्त से एकमएक होती है
या अनन्त किसी इकाई में घनीभूत होता है
कुछ होता है अवश्य

शरीर के आवेगों और मस्तिष्क की गणनाओं के बीच
एक अनिर्वचनीय प्रदेश था
वह मन था
मन से मनुष्य थे
मन एव मनुष्याणां.....
लेकिन कितने थे?

शारीरिक आवेगों से हम पशु थे
मस्तिष्क की गणनाओं से हम एक संगणक थे/ एक नवमानव
आवेगों और गणनाओं में आज तक भटकते आये हैं हम
कब मन का कहा माने हैं हम

मन से अनन्त था/ अमूर्त था
अनन्त से/ अमूर्त से अन्त था/ मूर्त था
हर चीज की जगह थी
हर चीज का समय था
इस दिक्काल सीमा से परे हर चीज भ्रम थी/ तृष्णा थी
भ्रम से/ तृष्णा से असहिष्णुता थी/ विद्वेष था
हिंसा थी/ प्रतिशोध था
मन से अनन्त था/ अमूर्त था
अनन्त से/ अमूर्त से सहिष्णुता थी/ प्यार था
दया थी/ क्षमा थी
मन से मूल्य था/ आदर्श थे
मूल्य की निष्ठा थी/ आदर्श की रचना थी
वही मनुष्य को मनुष्य से जोड़ती थी
वही आवेगों को सजाती थी संवारती थी
वही रचनाओं की रहबर थी रहनुमा थी

मन से मनुष्य थे
हममें से कितने थे?
प्रकृति नहीं करती अपनी पुनरावृत्ति
उसकी हर सृष्टि है नयी/ अनोखी
अनेक जीवन हैं सृष्टि में
फिर भी कुछ तो अनोखा है हमारे जीने में?
मन ही उसका बेनजीर तत्व है
कितनी प्रजातियां आयीं और लुप्त हो गयीं
मनुष्य तुम बचना अपने मन को बचाना

नाकामयाबियां/ शानदार नाकामयाबियां
मन का निषेध नहीं/ उसके होने का आगाज हैं
शारीरिक आवेगों की मंजिल है कामयाबी
मस्तिष्क की व्याख्या/ उसकी कसौटी है कामयाबी
कामयाबियों के शिखर पर नहीं ठहरता है मन
नाकामयाबियों का निर्वाचित प्रदेश है मन

आज
अहं जब आहत है
चित्त जब अस्थिर है
बुद्धि जब छीजने लगी है
मन को साधना है
परो हि योगो मनसः समाधिः30
आओ
यज्ञ की अग्नि प्रज्वलित करो
मैं सूर्य और संज्ञा की संतान
वैवस्वत मनु
आज मन की बलि दूंगा
आज सारे दुष्कर्म मेरे हैं
सारी दुरूक्तियां मेरी हैं
सारी दुर्भावनाएं मेरी हैं
ब्रह्मा तुम्हारा अन्धकार मेरा है
युधिष्ठिर तुम्हारा झूठ मेरा है
दुर्योधन तुम्हारा सच मेरा है
धन तुम्हारी कामना मेरी है
सत्ता तुम्हारा अत्याचार मेरा है
सभ्यता तुम्हारा पाखण्ड मेरा है
प्रकृति तुम्हारा मनुष्य मेरा है
आज मेरा मन प्रायश्चित करता है
और अपनी बलि देता है
आओ प्रेयसी
यज्ञ की अग्नि प्रज्वलित करो/ मंत्र पढ़ो
सत्यं दया तपः शौचं तितिक्षेक्षा शमो दमः ।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्यागः स्वाध्याय आर्जवम्।।
संतोषः समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरमः शनैः ।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम् ।।
अन्नाद्यादेः संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हतः ।
तेष्वात्मदेवताबुद्धिः सुतरां नृषु पाण्डव ।।31

हजार अंगोंवाले पुरूष की बलि से सृष्टि हुई जगत की
दस मस्तिष्कवाले दशानन की बलि से सृष्टि हुई पुरूषोत्तम की
एक मेरे मन की बलि से सृष्टि होगी विश्वमन की

एक मन की बलि से विश्वमन था
विश्वमन से विश्वदेव थे
हैलो, क्या यहां कोई विश्वमानव है?

मृत्यु की अनेक कहानियां थीं
लेकिन मेरी तो जीवन की कहानी थी
मृत्यु की अनेक संभावनाएं थीं
लेकिन मैं जीवित था
मृत्यु की अनेक व्याख्याएं थीं
लेकिन मेरी तो जीवन की व्याख्या थी

हर चीज का अन्त था
लेकिन मेरी कविता तो अनन्त की कविता थी

मई,1992


III

फिर आया यह पथिक
स्मृति संग लिए

अनादि और अनन्त के बीच
अनादि से च्युत अनन्त से अनजान
जन्मने का तथ्य है
जीने का पथ्य है
मरने का कथ्य है

आग और आकाश के बीच
आग से च्युत आकाश से अनजान
धुएं की जिन्दगी है जिन्दगी का धुंआ है

धुंए को काटता धुंआ
धुंए का वर्तुल कब बदल जाता है
एक अदद औरत में
चूल्हे को घेरकर बैठी धुंए में
हजारों सालों से आंखें मींचती खांसती आंचल संभालती धुंए में
कब ढ़ल जाती है औरत
कंटेनरों में
पूरी सभ्यता को सहेजती संभालती संवारती धुंए में
धुंए में धुंए को धुंए से काटती
कितना फासला तय करती है सभ्यता

आग से च्युत आकाश से अनजान
बूंद की जिन्दगी है सभ्यता

फिर भी
आज इस धुंए की धुंध में भी आग की तासीर है
आवारा बूंद में भी किसी आदिम जल की प्यास है
द्वैत सभ्यता में भी किसी अद्वैत स्मृति की छाया है

हां स्मृति
आदिम आग की
आदिम जल की
आदिम शिश्न की.......

यह अन्तहीन आदिम की अनादि है
यह अन्तहीन अन्त ही अनन्त है
यह अन्तहीन च्युत ही अच्युत है........

स्मृति थी
स्मरमुपास्स्वेति.......1
स्मृति थी और कुछ भी स्मरण नहीं था/ कोई मेमोरी नहीं थी
बस अनन्त की स्मृति थी अनन्त की प्रतिकृति थी

शरीर की शहादत/ शब्द की आहुति/ मन की बलि के बाद
स्मृति थी स्मृति के साथ लौटना था......
त एतदेव रूपमभिसंविशन्त्येतस्माद्रूपादुद्यन्ति.....2


सभ्यता इसी स्मृति से परावर्तित होकर संस्कृति बनती थी
मनुष्य इसी स्मृति से गुजकर संस्कारवान बनता था
अनुभूति इसी स्मृति से जुड़कर कविता बनती थी.......


मई,1992






संदर्भ
I
साधो, अशब्द साधना कीजै
1. ‘........धियो यो नः प्रचोदयात ’, ऋग्वेद,3/62 ।
2. लिलाजन - निरंजना नदी का वर्तमान नाम ।
3. ‘यत् पुरूषेण........शरद्धविः।।’, ऋगवेद,10/90 ।
4. ‘यो वः..........मातरः ।।’, ‘जो तुम्हारा कल्याण रस है उसे स्नेहवती माता की तरह हमें प्रदान करो’, ऋग्वेद,12/9 ।
5. ‘आस्था की कोख.......चमत्कार’, गेएठे, ‘फॉस्ट’ ।
6. ‘जिज्ञासया......सूचयति’, ‘भामती’, वाचस्पति मिश्र ।
7. ‘वह आत्मा कहां है.......विलिन हो जाती है’, वृहदारण्यक उपनिषद,4/5/12 और 4/5/13 ।

II
मन एव मनुष्याणां
1. एडेनोसिन ट्राइफॉस्फेट (एटीपी) : तमाम जीवन प्रक्रियाओं में ऊर्जा के स्थानान्तरण और उपयोग के लिए जिम्मेवार एक अणु ।
2. डीआक्सीराइबो न्यूक्लिअक एसिड (डीएनए) : जीवित कोशिकाओं के एक महत्वपूर्ण रसायन न्यूक्लिओप्रोटीन्स की एक मूलभूत इकाई जिसके एक अणु में परमाणुओं के दो मिलते-जुलते धागे (स्ट्रिंग्स) स्प्रिंगनुमा आकार में एक दूसरे से गुंथे होते है, ये ही अपनी प्रतिकृति गढ़नेवाले परमाणु हैं ।
3. कमला: उत्तर बिहार की एक नदी जो प्रायः अपना मार्ग बदलती रहती है, पहले जीववत्सा (जीवछ) नदी के मार्ग पर बहती थी और जीवछ-कमला कहलाती थी और अब बलान के मार्ग पर बहती है और कमला-बलान कहलाती है ।
4. ‘न वै स़्त्रैणानि...........हृदयान्येता’, ऋग्वेद, उर्वशी-पुरूरवा संवाद,10/95/15 । भावार्थ: ‘स्त्रियों की मित्रता (स्थाई) नहीं होती, उनके हृदय सालावृकों (लकड़बग्घों) के (हृदय) हैं ।’
5. ‘अर्धम-मिथ्या......नित्य यातना’, पुराणों में वर्णित कलि की वंशावली ।
6. कमला महाविद्या: दस महाविद्याओं - काली, तारा, छिन्नमस्ता, षोडशी, भुवनेश्वरी, त्रिपुरभैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला - में अन्तिम महाविद्या ।
7. ‘सुभगः सुन्दरतरो..........ललिताकृतिः’, शिवपुराण, रूद्रसंहिता । भावार्थ: ‘यह सौभाग्यशाली बालक अत्यन्त सुन्दर था, उसका मुख हाथी का-सा था । उसके शरीर का रंग लाल था, उसके मुखमंडल पर अत्यन्त प्रसन्नता खेल रही थी । उसकी कमनीय आकृति से सुन्दर प्रभा फैल रही थी ।’
8. ‘प्रीति..........पीयमान’, कालिदास, मेघदूत, पूर्वमेघ ।।16।। भावार्थ: ‘ग्रामवधूटियां भौंहे चलाने में भोले, पर प्रेम से गीले अपने नेत्रों में तुम्हें भर लेंगी ।’
9. ‘एण्ड वी फ्लोट........लीजेण्ड’, यूरिपीडिज (480-406 ई0 पू0) , हिप्पोलाइटस । भावार्थ: ‘और हम किंवदन्तियों के बहाव में बहे जा रहे है ।’
10. एफ्रोदिते, प्रेम की देवी (ग्रीक) ।
11. एतावद्वा इदं सर्वम....वृहदारण्यक उपनिषद,1/4/6 । भावार्थ: ‘जगत में यही दो चीजे हैं - अन्न और अन्न का उपभोग करनेवाले ।’
12. बैस्तील: बैस्तील के पतन से ही 1789 में फ्रांसीसी राज्यक्रांति शुरू हुई ।
पीटर्सबर्ग: रूसी क्रांति के दौरान बोलशेविकों का केन्द्र ।
चिङकाङशान: माओ के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्टों का पहला आधार-क्षेत्र ।
दिएनबिएनफू: वियतनामी कम्युनिस्ट छापामारों ने 1954 में दिएनबिएनफू की लड़ाई में फ्रांसीसियों को निर्णायक शिकस्त दी थी ।
दोइ मोइ: बाजार-अर्थव्यवस्था विकसित करने के लिए आर्थिक नवीकरण का वियतनामी कार्यक्रम ।
13. श्रम का चर्तुआयामी रूप: श्रम का भौगोलिक विस्तार, श्रम का काल में विस्तार, तकनालाजिकल नवीकरण के जरिए श्रम का विकास, और श्रम तथा श्रम-प्रबंधन सम्बन्धी सिद्धान्तों का विकास ।
14. कार्लोस गार्डेल: टैंगो (नृत्य, उत्पत्ति: अर्जेण्टीना) के महानतम प्रणेताओं में से एक । उन्होने साढ़े छः सौ से भी अधिक जिंगल्स रचे थे ।
सायमा झील: फिनलैण्ड की सबसे बड़ी झील ।
सेविल: स्पेन में, यहां का सिल्क शॉल प्रसिद्ध है, यह डॉन जुआन की जन्मभूमि भी मानी जाती है ।
डॉन जुआन: स्वच्छन्द प्रकृति का एक मिथकीय (स्पेनी) पात्र ।
जोविक: नार्वे में, विश्व का पहला भूमिगत आइस हॉकी स्टेडियम जिसका निर्माण 1994 के शीतकालीन ऑलम्पिक खेलों के लिए किया गया ।
15. ‘नोरोजोनोम...........नमोगा’, एक मुंडारी लोकगीत । भावार्थ: मानवजीवन दो दिनो का है, इसलिए प्रेम के साथ हंस बोल लेना चाहिए । हे प्रिय, यह जीवन फिर नहीं मिलेगा.......यह जीवन नहीं बदला जा सकता । कुम्हार का घड़ा टूट-फूट जाने पर कुम्हार के पास नहीं आता, उसी प्रकार, हे प्रिय, यह जीवन लौट नहीं सकता ।
16. बस सिंटेक्टिकल सवाल थे: यहां संकेत पश्चिम में प्रचलित उस चिन्तन शाखा से है जिसका प्रतिनिधित्व मुख्यतः रूडोल्फ कार्नेप और ‘वियेना सर्कल’ करते हैं । कार्नेप के अनुसार, दर्शन का मुख्य कार्य वाक्य-विन्यास (सिनटैक्स) का अध्ययन करना है ।
17. ‘अय सर.......’: विलियम शेक्सपीयर, टेम्पेस्ट । भावार्थ: ‘श्रीमन्, यह अन्तर्मन कहां है? मुझे तो अपने दिल में कहीं भी इस देवता का भान नहीं होता ।’
18. ओसिरिस: प्राचीन मिस्र के देवता जो पाताललोक में रहते थे और मृतकों की आत्मा के कर्मों-दुष्कर्मों का फैसला करते थे ।
सुखावती का अमिताभ: महायान बौद्ध त्रिकाया सिद्धान्त में विश्वास रखते हैं - धर्मकाया, संभोगकाया और निर्माणकाया । इस लोक से जुड़ी धर्मकाया ही अमिताभ हैं जो सुखावती में विराजते हैं । निर्माणकाया सिद्धार्थ गौतम के रूप में इस धरती पर आयी ।
दीना-भद्री: दो भाई, बिहार के सबसे दलित समुदाय मुसहरों के मिथकीय नायक ।
19. ‘दैन डु यू........चिल्ड्रेन’, वर्जिल, एनीड, बुक फोर्थ । भावार्थ: ‘ ओ टायर के निवासियों, तो तुम सब अब युगों-युगों तक अपनी तमाम नफरत के साथ उसके बोए बीज का अनुसरण करो........राष्ट्रों के बीच अब कोई मुरव्वत और मेलजोल न रहे.......मैं तट की तट से, लहरों की जल से, तलवार की तलवार से शत्रुता का आह्वान करती हूं, उनके ये झगड़े पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते रहें....।’
20. ‘कंग्रीगेशन ऑफ.....डिसीट ।’ पूरा उद्धरण इस प्रकार है: ‘फार दि कंग्रीगेशन ऑफ हिपोक्रिट्स शैल बी डिसोलेट, एण्ड फायर शैल कंज्यूम द टेवरनैकल्स ऑफ ब्राइबरी । दे कन्सीव मिस्चीफ, एण्ड ब्रिंग फोर्थ वेनिटि, एण्ड देअर बेली प्रिपेयरेथ डिसीट ।’ भावार्थ: ‘पाखण्डियों की मंडली वीरान होगी, और आग रिश्वतखोरी के तंबुओं को जलाकर राख कर देगी । वे झगड़े उकसाते है, घमंड दिखलाते हैं और उनके पेट में तो छल-कपट ही पकता रहता है ।’ ‘द न्यू टेस्टामेंट’, किंग जेम्स वर्सन, द बुक ऑफ जोब,15/34-35 ।
21. टी-ब्रेक में प्रयुक्त अंग्रेजी अंशों का भावार्थ:
‘मां, मैं जानती हूं/ जानती हूं, मां/ तुम्हें मेरा मिलना-जुलना/ मेरा चाल-चलन/ कुछ भी नहीं भाता/ नहीं लगते अच्छे मेरे दोस्त/ लेकिन मां/ किसने कहा तुमसे/ तुम्हारी बूढ़ी, खूसट पीढ़ी का करती हूं मैं मान-सम्मान?
असल चीज है यह हाड़-मांस की देह/ बाकी सब तो क्षणभंगुर हैं/ काम में चुस्ती और निपुणता का राज क्या है/ जानती हो/ पेट का भरा होना और/ तृप्त होना अपनी कामवासना का
मां, मानवजाति तो स्वभाव से ही स्वछंद है/ दो, तीन, चार-चार शादियां करते हैं लोग अपने जीवन काल में/ और विवाह-पूर्व और विवाहेतर सम्बन्धों के क्या कहने/ यहां-वहां स्त्रियों ओर पुरूषों के समलैंगिक क्लब हैं/ दुष्कर्म हैं/ बलात्कार हैं/ कामोत्तेजक श्रव्य-दृश्य उपकरण हैं/ और मां, बाजार में तो फुलानेवाली आदमकद गुड़िया भी बिकती है
मां, जानवरों से भी गया-बीता है मानवजाति का यौनाचार/ और अपनी स्वाभाविक वृत्तियों का दमन/ जन्म देता न जाने कितनी व्याधियों और ग्रंथियों को/ ईडिपस, इलेक्ट्रा, यमी, भीष्म...../ मानसिक उलझने हैं, स्नायुरोग हैं, परपीड़क ओर परपीड़ित कामुकता है/ या फिर दोनों से ग्रस्त लोग हैं/ मनोरोग हैं/ फल-फूल रही है मनोचिकित्सकों की एक पूरी जाति/ हमारे पाखण्डों पर/पाप और दण्ड की हमारी झूठी चेतना पर
उसी तरह मां/ कपड़े भी, हमारी सभ्यता की तरह, पाखण्ड की शुरूआत हैं/ हर कोई जानता है कपड़ों के पीछे क्या है/ पर्दा इसलिए पाखण्ड है, पाखण्ड/ पर्दादारी के साधन नहीं हैं कपड़े/ वे तो अपनी देह को और आकर्षक अंदाज में दिखाने का माध्यम हैं/ मौके, मौसम और मिजाज के अनुरूप/ प्राकृतिक छटा और अपने देहाकार से मेल बिठाते हुए/ पहना जाता है वस्त्र/ और यह पहननेवाले पर निर्भर है कि वह क्या दिखाये/ वक्ष/ कटिरेखा/ या फिर जांघों का जंगल
आइल ऑफ द मैन और केमैन आइलैण्ड्स के टैक्समुक्त स्वर्ग की तरह/ मानवजाति ने न मालूम कितने दिनों से बना रखा है अपना यौन-स्वर्ग/ मैं खुद अभी ल’ ट्रेपीज* से आ रही हूं, मां
छत्तीस चौबीस छत्तीस का बस काम-प्रतीक बन रखा है पुरूषों ने हमें /पर देखो मां, हमने उनका क्या किया? / बस छत्तीस (शिश्नों) में सीमित कर दिया है हमने उन्हें/ चॉपर, लव ट्रंचन, डोंगर, ज्वॉय स्टिक**, ऐसे ही कुछ......
कृत्रिम गर्भाधान का युग आन पहुंचा है, मां/ छुटकारा पा चुके हैं हम गर्भ-धारण करने के बोझिल काम से/ विवाह की संस्था को अलविदा कहने का वक्त आ गया है/ बेमानी है उत्तराधिकार का प्रश्न, मां/ कोई किसी का उत्तराधिकारी नहीं होता/ हर कोई खुद अपना स्रष्टा है/ जमाना गया, मां, भावनात्मक रिश्तों-नातों का
देखो मां/ झूठे, आत्म प्रवंचक प्रेम कहानियां लिखने में/ प्रेमगीत पढ़ने में/ प्रेम नाटकों के मंचन में/ सामाजिक रूप से आवश्यक कितना श्रमकाल नष्ट किया हमने/ इतने श्रमकाल में हम तो मंगल ग्रह पर अपनी कॉलोनियां बसा सकते थे
मां, सच-सच बताना/ अपने जीवनकाल में/ तुम्हारे कितने विवाहेतर सम्बन्ध बने/ अपना भेद मुझे भी बतलाओ/ ज्ञान दो अपनी बेटी को/ अब मैं तुमसे स्वतंत्र हूं/ और सबकुछ से/ बोलो न मां, भोली मत बनो/ इस आजादी की तुम भी तो भागीदार बनो/ एक जैविक जरूरत है यौनाकांक्षा/ हम सब में छुपी एक मूल वृत्ति/ कुछ रसायनों का कमाल/ और बस इतना ही मां
क्या मैं गंदी बातें कर रही हूं? / नहीं मां, नहीं/ अश्लीलता तो मैकाले के जमाने से ही देसी भाषाओं के खाते रख छोड़ी जा चुकी है/ अंग्रेजी में कुछ भी अश्लील नहीं
लेकिन मैं पतिता नहीं हूं, मां जानवरों की इस दुनिया में भी मैं जीना और फलना-फूलना जानती हूं/ रस लेना जानती हूं मैं जीवन का/ मैं तो कई पुरूषें के पतन के पीछे छिपी नारी होना चाहती हूं
लेकिन मां, तुम जवाब क्यों नहीं दे रही?
प्रिय, तुम्हारी मां मर चुकी है/ मृत्यु ही उसका जवाब है
नहीं....
..............
एक नाता टूट गया/ तुम अपनी मां से आजाद हो/ अब तुम्हारी मां तुमसे आजाद है/ एक संवाद टूट गया/ तुम्हारी चीख ही आखिरी बात थी
हां प्रिय, तुम्हारी मां मर चुकी है/ लेकिन याद रखना, मां एक मृत्युहीन श्रेणी है
क्या तुम संस्कृत में बातें कर रहे हो/ इससे तो सचमुच मुझे उबकाई आती है / यह मुझे बनारस के तोंदियल पंडों की/ कोढ़ियों और भिखमंगों की/ चारो ओर फैली गंदगी और बदबू की याद दिलाती है/ नफरत करती हूं मैं इस भाषा से
लेकिन अगर तुम इस भाषा से परिचित हाती/तो यह तुम्हें खूब भाती/ कामसंवेगों की सबसे शक्तिशाली भाषा है यह
मेरी मां मेरी मां
हां वह अब नहीं है/ उदात्त है उनकी मौत/ और तुम्हारी बगावत? / उसका कहना ही क्या/ प्रिय, कोई मुर्दा हकीकत नहीं है मृत्यु/ वह तो एक जीवन्त कर्ता है/ और बगावत और मृत्यु का सम्मिश्रण है हमारा अस्तित्व/ इस बगावत पर सोचो और इस मृत्यु पर भी/ इस पर सोचो प्रिय, सोचो

*ल’ ट्रेपीज, न्यूयार्क का एक प्रसिद्ध सेक्स क्लब ।
**’चॉपर, लव ट्रंचन............’ ब्रिटेन से प्रकाशित महिलाओं की एक पत्रिका ‘कम्पनी’ ने अपने आवरण पृष्ठ पर छत्तीस किस्म के शिश्नों की तस्वीरें छापी थीं और उनका अलग-अलग नामकरण किया था। उन्हीं में से कुछ नाम ।
22. ‘द साइलेन्स ऑफ द लैम्ब्स’, वीभत्स विकृतियों की विषयवस्तु पर आधारित एक फिल्म । इस फिल्म में अभिनय के लिए एंथॉनी हॉपकिन्स को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का ऑस्कर अवार्ड मिला ।
23. एल डोराडो, कांदिद, कुनेगुन: वाल्तेयर, ‘कांदिद, ऑर दि ऑप्टिमिस्ट’। एल डोराडो: वाल्तेयर द्वारा वर्णित एक यूटोपिया, एक काल्पनिक प्रदेश जहां अपार वैभव है और असीम सुख-शान्ति है । धरती के इस स्वर्ग में भी कांदिद को अपनी प्रेमिका कुनेगुन की अनुपस्थिति सताती है । सबकुछ है पर कुनेगुन नहीं । प्रेमिका नहीं तो स्वर्ग का भी क्या सुख? अन्ततः वह एल डोराडो से भी निकल भागता है - कुनेगुन की खोज में ।
24. ‘हैंग अप फिलॉसॅफी...............’ विलियम शेक्सपीयर, ‘रोमियो एण्ड जूलियट’। भावार्थ: ‘फलसफा यदि जूलियट पैदा नहीं कर सकता तो उसे शूली पर चढ़ा दो ।’
25. गंगा: गंगादेवी (दिवंगत) , मधुबनी चित्रकला की एक प्रसिद्ध कलाकार । कोहबार, जीवन-चक्र: मधुबनी चित्रकला की कृतियां । अहिबातक दीप इसी चित्रकला का एक प्रतीक । चित्रकारी को मैथिली में लिखना कहते हैं ।
26. ‘माधव..........रूप’, विद्यापति पदावली से ।
27. ‘हैलो ब्राइटनेस....... अगेन’। भावार्थ: ‘ऐ ज्योतिपुंज, कितना पुराना सम्मोहन का नाता तुमसे, लो आ गया गप्पें मारने फिर से’ । तुलनीय: ‘हैलो डार्कनेस, माई ओल्ड फ्रेंड, आइ हैव कम टु टॉक विद यू अगेन, ’ पॉल सिमोन और आर्ट गरफुंकेल का एक गीत (साउण्ड्स ऑफ साइलेंस) । भावार्थ: ऐ तिमिर, मीत पुराने, लो आ गया मैं, फिर गप्पें मारने’ ।
28. ‘देयर बी थ्री टाइम्स....’ पूरा उद्धरण इस प्रकार है: देअर बी थ्री टाइम्स, डिक, व्हेन नो वूमेन कैन स्पीक, ब्यूटीफुल टाइम्स । व्हेनेवर हियर्स हर लवर, एण्ड व्हेनेवर गीव्स हरसेल्फ, एण्ड व्हेनेवर लिट्ल वन इज बॉर्न । यू - यू वुड हैव बीन द फर्स्ट टू स्टॉप मी इफ आइ वुड हैव स्पोकन देन । भावार्थ: तीन क्षण होते है, डिक, जब कोई स्त्री कुछ नहीं बोलती, खूबसूरत क्षण । जब वह अपने प्रेमी को सुन रही होती है, जब वह खुद को समर्पित कर रही होती है, और जब नन्हा शिशु जन्म लेता है । हां, तुमने ही मुझे चुपकर दिया होता अगर उस क्षण मैंने कुछ कहने की कोशिश की होती। जॉन मेसफील्ड, ‘द ट्रेजडी ऑफ नान’।
29. पी बटे ई अनुपात: शेयर बाजार की एक प्रचलित शब्दावली । यह शेयरों की बाजारू कीमत और प्रति शेयर आय का अनुपात है ।
30. ‘परो हि...........समाधिः’; श्रीमद्भागवत,11/23/46 । भावार्थ: ‘मन का समाहित हो जाना ही परम योग है’ ।
31. ‘सत्यं, दया........पाण्डव’, श्रीमद्भागवत,7/11/8-12 । भावार्थ: सत्य, दया, तपस्या, शौच, तितिक्षा, आत्म-निरीक्षण, ब्राह्य इन्द्रियों का संयम, आन्तर इन्दियों का संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, सन्तोष, समदृष्टि, सेवा, दुराचार से निवृत्ति, लोगों की विपरीत चेष्टाओं के फल का अवलोकन, मौन, आत्मविचार, प्राणियों को यथायोग्य अन्नदानादि, समस्त प्राणियों में विशेषकर मनुष्यों में आत्मबुद्धि....(युधिष्ठिर से नारद) ।

III
स्मृति संग लिए
1. ‘स्मरमुपास्स्वेति’, छांदोग्य उपनिषद,7/13 । भावार्थ: ‘स्मृति की उपासना करो’।
2. ‘त एतदेव......’, छांदोग्य उपनिषद,3/6/2 । भावार्थ: ‘ इस रूप में वे खो जाते हैं, इस रूप से वे प्रकट होते हैं’ ।
(समाप्त)

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