एक मुसाफिर Poem by Nitesh K. mahlawat

एक मुसाफिर

हीरा बनकर भी तू, अंगूठी में जड़ा रह गया,
मुसाफिर आगे निकल गए तू खड़ा रह गया|
कभी सूरज सा जला कभी सविता सा बहा
कभी बादल सा जिया कभी कविता सा कहा
बरसात के एहसासों को घड़ता रह गया
सावन आगे निकल गया तू खड़ा रह गया|
ख्यालों में जगा, नींदों में रहा
आसमानों में जिया, पागल सा कहा,
अनजाने सपनो को पढता रह गया
नैना आगे निकल गए तू खड़ा रह गया |
बनकर मूरत सा मंदिर में पड़ा रह गया
मैं दरवाजे पर था तू खड़ा रह गया,
तू कुछ न बोला और सब जाम भर गया
तू खुदा बन गया मैं ख़ालिक़ रह गया ।

नितेश र महलावत

एक मुसाफिर
Wednesday, November 4, 2015
Topic(s) of this poem: poem,poems
POET'S NOTES ABOUT THE POEM
Came to mind after reading the book *feel the fear and do it anyway by Susan jeffer
COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Close
Error Success