प्रभु जी कर दो नईया पार,
अब तो हो गया बंटाधार.
शादी ने हर ली आज़ादी, मारी मन की इच्छा.
जब भी घर अब देर पहुँचता, होती अग्नि परीक्षा.
बंदा हो गया अब लाचार.
प्रभु जी कर दो नईया पार.
सुख के दिन अब स्वप्न हो गये, सब खुशहाली फर्जी.
बात-बात में आड़े आती, घरवाली की मनमर्जी.
चलती उसकी अब सरकार.
प्रभु जी कर दो नईया पार.
शादी के लड्डू का असली, स्वाद समझ अब आया.
का वर्षा जब कृषि सुखानी, सोच-सोच पछताया.
बेड़ा गर्क हुआ करतार.
प्रभु जी कर दो नईया पार.
दुनियाँ में दो ही बलशाली, इक तुम हो दूजी घरवाली.
तुम हो मेरे पालनहारे, उसने कभी घास न डाली.
कर दो भगत का अब उद्धार.
प्रभु जी कर दो नईया पार.
कहती है कि बाप ने मेरे, बहुत दहेज़ दिया है.
अपनी सेवा करवाने को, तुमको मोल लिया है.
कैसा अजब है ये व्यापार.
प्रभु जी कर दो नईया पार.
धमकी देती है कहती है, याद करा दूँगी नानी.
मम्मी मेरी थानेदार है, मँहगी पड़ेगी नादानी.
करती मुझको खबरदार.
प्रभु जी कर दो नईया पार.
तुम्हीं बताओ अपना दुखड़ा, जाकर किसे सुनाऊँ.
नहीं पुरूष आयोग है कोई, जिसमें रपट लिखाऊँ.
पाऊँ कैसे उससे पार.
प्रभु जी कर दो नईया पार.
उपेन्द्र सिंह ‘सुमन’
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हास्य-व्यंग्य की एक बेहतरीन रचना शेयर करने के लिए धन्यवाद, उपेन्द्र जी. रचना की मधुरता व उसमें मुहावरों का सुंदर प्रयोग कमाल का जादू करता है. शादी के लड्डू का असली, स्वाद समझ अब आया. का वर्षा जब कृषि सुखानी, सोच-सोच पछताया. (प्रभुजी) इक तुम हो दूजी घरवाली. तुम हो मेरे पालनहारे, उसने कभी घास न डाली.