आदमी Poem by Upendra Singh 'suman'

आदमी

हैवानियत की हद से अब गुजर गया है आदमी|
कौन कहता है कि अब सुधर गया है आदमी|

अपने ही करतबों से कर दी तबाह दुनियां|
ख़ुद की ही नज़रों से अब उतर गया है आदमी|

छल-कपट व स्वार्थ की कर रहा जो साधना|
भेड़ियों को मात अब तो कर गया है आदमी|

सुन लो हकीकत ये जो कर रहा हूँ मैं बयां|
भीतर ही भीतर अब मर गया है आदमी |

आस्तीन का सांप देखो घात ऱोज कर रहा|
पोर-पोर अब ज़हर से भर गया है आदमी|

आदमी ने आदमी पे यों सितम किया ‘सुमन'|
टुकड़े-टुकड़े टूटकर बिखर गया है आदमी|

वादा किया था ज़मी पे ज़न्नत उतार लायेगा|
अपने ही वायदे से अब मुकर गया है आदमी|

मौत का सामान सारा ख़ुद ही वो जुटा रहा|
ज्वालामुखी के ढेर पर ठहर गया है आदमी|

ऐ, मौत! अपने घर तू जा, जा! जा! जा!
काम अब तो ख़ुद तेरा कर गया है आदमीI
उपेन्द्र सिंह ‘सुमन'

Monday, July 14, 2014
Topic(s) of this poem: humanity
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