एक रोज बॉस ने मुझे
अपनी केबिन में बुलाया,
कुछ पूछा,
कुछ बताया
और बातों-बातों में ये सवाल उठाया
कि -
क्या मुझसे भी नहीं डरते हो?
यहाँ बैठ-बैठे कागज काला करते हो.
उसकी बात सुन मैं चकराया,
थोड़ा घबराया
और स्वंय से ये सवाल दुहराया
कि -
पाँच सौ किलोमीटर दूर दिल्ली में
मुझे कैसे पहचान लिया गया?
घर में जो बात श्रीमती जी कहती हैं,
उसे यहाँ भी मान लिया गया.
और वह भी ऐसी स्थिति में
जब कि इस ऑफिस में
बेचारा, कम्प्यूटर दिन भर
अपनी कमर तोड़ता है,
कागज कलम से कोई रिश्ता नहीं जोड़ता है,
फिर भी ये नामुराद मुहावरा
मेरा पीछा नहीं छोड़ता है.
हद हो गई है
पत्नी की बात अब बॉस भी दुहरा रहा है,
लगता है मेरे ऊपर ‘पेटीकोट गवर्नमेंट' का
खतरा मंडरा रहा है.
मेरे चाहनेवालों मुझे बचाओ! मुझे बचाओ!
और हाँ,
देश के किसी भी कोने में
कहीं भी,
कोई पुरूष आयोग हो तो
तो मुझे फ़ौरन बताओ.
उपेन्द्र सिंह ‘सुमन'
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वाह! वाह! कविता का नायक बेचारा पुरूष-आयोग को ढूंढ रहा है. हास्य-व्यंग्य में रची-बसी एक उत्कृष्ट रचना. धन्यवाद, मित्र.