वसीयत Poem by Upendra Singh 'suman'

वसीयत

जुर्म इतना तो सनम हम भी किया करते हैं.
तुझसे पूछे बगैर तेरा जामे-हुस्न पिया करते हैं.

अब तो जीने की हसरत वो जो मर गई जबसे.
देख-देख के हम बस तुझको ही जिया करते है.

जब भी मिलती है यार तुझसे मुझको झिड़कियां.
हम तो उसको भी सनम दिल से लिया करते हैं.

जब तेरी तबीयत मुझे नासाज़ सी लगती है कभी.
चुपके-चुपके ऊम्र अपनी हम तुझको दिया करते हैं.

दूरियाँ तुझसे हुईं क्या कि दिल चाक-चाक है मेरा.
हम अपनी दुनियाँ में ज़ख्म अपना सिया करते हैं.

रोज लिखते हैं हम वसीयत और करते हैं दुआयें.
हर जिस्ते-घड़ी ‘सुमन' तेरे नाम किया करते हैं.
उपेन्द्र सिंह ‘सुमन'

Wednesday, February 3, 2016
Topic(s) of this poem: love and life
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