बदनुमा दाग Poem by vijay gupta

बदनुमा दाग

बदनुमा दाग

शाम ढली,
चरस की चिल्मो से धुए का गुब्बार उठा,
बस्ती का माहौल,
मादकता के रंग में ढला,
मिची-अध मिची पलकों के साथ,
बिछोनो पर अध लेटे से लोग,
दिन भर के अपने अनुभवों को,
साझा करने में तल्लीन,
दुनियां जहां की रंगीनियों से बेखबर,
अपनी ही विस्तारित दुनियां में लिप्त,
विकास की किरणों से बेखबर,
नशे की दुनियां में डूबे हुए,
जुर्म की इबारत लिखने में दक्ष,
कानून के साथ शह-मात के खेल में माहिर,
इस बस्ती के ये तमाम लोग,
हमारे समाज के अभिन्न अंग हैं ।
सांझ ढलते ही,
जिंदगी आबाद हो जाती है यहां पर,
चहल-कदमी बढ़ जाती है,
सभ्य समाज के लोगों का आगमन होता है ।
जिंदगी में इनकी गरल घोल
पौ फटने से पूर्व प्रस्थान कर जाते हैं,
ये लोग शंकर भगवान की तरह,
तमाम विषैले गरल को शरीर में धारण कर ले जाते हैं ।
और होकर अमर,
इस जहां में जहां-तहां अपनी न्यारी दुनियां बसा लेते हैं ।
इनकी ये न्यारी दुनियां
सभ्य समाज पर एक बदनुमा दाग ही तो है ।

Monday, April 2, 2018
Topic(s) of this poem: ignorance
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vijay gupta

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meerut, india
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