यात्रा प्रकृति की Poem by vijay gupta

यात्रा प्रकृति की

यात्रा प्रकृति की

रात्रि का प्रथम पहर,
नदी किराने सरकंडों के झुंड,
झुंडो से निकलती सर-सर की आवाज,
काफी है अजनबी को बेचैन करने के लिए।
इन्हीं झुंडों से चीखती,
खंजन पक्षी की आवाज,
रात के सन्नाटे को,
असहज बना देती है।
अजनबी किसी अनजान
श्मशान का सा एहसास करता है।
कुछ ही दूरी पर तब करते अघोरी,
अग्निकुंड में आहुति डालते, मंत्र गुनगुनाते,
नदी के तट को
अति रहस्यमयी बना देते हैं।
धरा पर खामोशी है,
आकाश में तारों की जगमगाहट।
चन्द्रमा अपने गंतव्य की ओर,
लगातार बढ़ता हुआ,
रहस्यमयी संसार को बदलने की चाहत लिए,
सूरज तेजी से अवतरित होने की ओर तत्पर,
पौ फटते ही,
ये नजारा बदल जायेगा,
जिंदगी गुन गुनायेगी की,
चिड़िये चहचहायेंगी,
फूल मुस्कुराएंगे, महक बिखेरेंगे,
मंदिरों में घंटियां बज उठेगी।
सूर्य की प्रथम किरण के साथ,
धरती श्रृंगार करेगी,
लालिमा की चादर ओढे़गी,
बच्चे गुनगुनायेंगे।
प्रकृति की लीला का ये भी
एक नियत पढ़ाव होगा।

Saturday, November 18, 2017
Topic(s) of this poem: nature
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vijay gupta

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meerut, india
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