खुद के अंतर मन में Poem by Sonu Sahgam

खुद के अंतर मन में

Rating: 5.0

-: खुद के अंतर मन में: -

दुनिया में जीने का,
सलीक़ा ढूंढ़ रहा हूँ ।
खुद के अंतर मन मेँ,
खुद को ही ढूंढ़ रहा हूँ ।।

है कैसा बोझ मुझपर,
जो महसूस मुझे होता है ।
चलती हुई सांसों पर,
मानो, एहसान सा होता है ।
बंदिशे न जाने है कैसी,
बेड़िया पैरोँ में ये कैसी ।
आज़ाद तो बस कहने को,
क़ैद हर पल हो रहा हूँ ।।

मन की बात कहने पर,
बन जाता हूँ गुन्हेगार ।
सफेद लिबास के पीछे,
देखता हूँ, होता काला व्यापार ।।
सच, मानो ज़हर बन गया,
झूठ के सर, ताज सज गया ।।
मानवता को अपनी सब,
मानो, खो बैठे है,
देख, हालात मेरी "सहगम"
खुद के ही अश्कों से भीग रहा हूँ ।।

खुद के अंतर मन मेँ,
खुद को ही ढूंढ़ रहा हूँ ।।

लेखक: - सोनू सहगम

खुद के अंतर मन में
Wednesday, January 4, 2017
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Pushpa P Parjiea 06 January 2017

मन की बात कहने पर, बन जाता हूँ गुन्हेगार । सफेद लिबास के पीछे, देखता हूँ, होता काला व्यापार ।।अन्तरमन की व्यथा को बेहद खूबसूरती से पेश किया है आपने आपनी इस रचना को सोनू जी

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