सोचने बैठी तो पाया कि
बात तो बस इतनी सी थी
साँझ के आँगन में
कुछ सपनों की राख बाकी थी
पतझड के मौसम में
सूखे पत्तों की सरसराहट बाकी थी
बीते सावन के बाद उगे हुए
शैवाल की गंध बाकी थी
बचे हुए चंद शब्दों में
छुपी हुई ग़मगीन गज़ल बाकी थी
टूटे पंख लिये एक चिड़िया
उड़ने को बेकरार बैठी थी
खुशियों की स्याह हो चुकी
धुँधली सी तस्वीर बाकी थी
इतने पर भी होठों पर
जमी ज़िद्दि मुस्कान बाकी थी
वक़्त ने रची थी जो पहेली
उसकी उलझन अभी बाकी थी
बात तो कुछ भी नही थी
लेकिन जुबान से सुनानी बाकी थी
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कुछ अनछुये प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त होने वाली संबंध-कथा जो एक स्याह तस्वीर तथा उलझन से बाहर आने की जद्दो जहद कर रही है. गहरी अनुभूतियाँ दिल को छू जाती हैं. धन्यवाद. साँझ के आँगन में / कुछ सपनों की राख बाकी थी टूटे पंख लिये एक चिड़िया / उड़ने को बेकरार बैठी थी
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बात तो कुछ भी नही थी लेकिन जुबान से सुनानी बाकी थी....aisa bhi hota hai kya Bahut behtareen rachna. Dhanyawad.
kavita pasand karne ke liye bahut bahut dhanyawad Varshaji.