आहुति Poem by Kezia Kezia

आहुति

गृहस्थी का हवन कुण्ड था


हवन की सफलता के लिये


आहुति डालने की बारी आयी


वो आहुतियो पे आहुतियाँ डालती गई


पहले अपनी ख़ुशियाँ की आहुति दी



फिर गृहस्थी के हवन कुण्ड की मांग पर



अपने सुख चैन की आहुति दी



फिर अपने मान सम्मान की आहुति दी



बेबस ने अंत में अपने



अहम् की आहुति डाल दी



और भड़का दी हवनकुंड की अग्नि



उस अग्नि में से लपटें निकली



उसमें उसका अहम और उसकी विचारधारा,



सपने सर्वस्व जल कर राख हो गये



अब वो, वो ना थी



आहुति के बाद गृहस्थी सवांरने वाली



राख मात्र थी



उस हवनकुंड में परीक्षा के लिये


उस सीता भी ने सब कुछ झोंक दिया


राम सभी इससे दूर से ही प्रणाम कर


निकल जाते हैं


ये हवनकुंड कब राम से अहुति मांगता है


और कब कोई राम इसमें अपना सर्वस्व


अर्पण करने का साहस कर पाता है


ये हवनकुंड भी पहचान कर आहुति मांगता है


कि कौन सी आहुति उस अग्नि को


भस्म करे देगी


और कौन सी उस अग्नि के समान


एक और अग्नि को प्रज्ज्वलित कर देगी


सीता की आहुति से वो वेदी भी


भस्म हो जाती है


जिसमें वो अपना अहम भी झोंक कर


गृहस्थी को पवित्र कर देती है


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Sunday, April 23, 2017
Topic(s) of this poem: philosophical ,womanhood
COMMENTS OF THE POEM
Madhuram Sharma 16 May 2017

very nice.......sir

0 0 Reply
Rajnish Manga 23 April 2017

अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच अपनी पहचान खो देने की हद तक समर्पण और त्याग की प्रतिमूर्ति है यह भारतीय नारी. यह पुरातन मिथक की पृष्ठभूमि में और भी अधिक प्रभाव छोड़ती है. धन्यवाद. आइये देखें: ....पहले अपनी ख़ुशियाँ की आहुति दी /..अपने सुख चैन की आहुति दी /..फिर अपने मान सम्मान की आहुति दी /..राख मात्र थी.

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