वो बेघर Poem by Kezia Kezia

वो बेघर

भगवान का घर बना रहे थे वो बेघर

जिनके दुधमुहे बच्चे भी सोते थे बाहर

जिनके पास सिर छुपाने तक को नहीं थी छत

कर रहे भगवान का घर बनाने को इतनी मेहनत

आज ये घर बना कर कोई और महल बनाएंगे

अपने सपने के दर को लेकिन तरस जाएंगे

तन पर मैले चीथड़े थे

पर भगवान को सजाने में जुटे थे

कोई गम नहीं था लेकिन मन में

दो वक़्त की रोटी मिल गयी

जी लेंगे इसी भ्रम में

जिनके पास घर भी है दर भी है

वो आते हैं इस घर में

अपने दुखड़े सुनाने को

भगवान से कुछ और ज्यादा मांगने को

शिकायतों का पिटारा खोलने को

इस दौड़ में आखिर तक दौड़ने को

कोई शिकायत नहीं करते

जो अपना पसीना बहाते

भगवान का घर बना रहे थे वो बेघर

जिनके दुधमुहे बच्चे भी सोते थे बाहर

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Saturday, April 29, 2017
Topic(s) of this poem: social
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