शाख से लटका पत्ता Poem by Kezia Kezia

शाख से लटका पत्ता

Rating: 5.0

शाख से लटका पत्ता
अधर में जीवन था जिसका
लटका कुछ ऐसे लगता
डोर संग पतंग के जैसा
कभी महकता फूलो की गोद में
कभी सुलगता काँटों की पौन में
नया नया धरती पर आया
कोंपल कभी नन्हा बन सबको लुभाया
कोमल, मुलायम हरा लावण्य
लगता मोहक शिशु सा सौंदर्य
आया योवन खेला कलियों संग
छूटा साथ कलियों का फूलो का
शाख़ से लटका पत्ता
जर्जर फिर एक आया बुढ़ापा
पत्ते को जिसने तड़पाया
फर फर कर रोया तब पत्ता
हाय मोह क्यो इतना
मैंने शाख से लगाया
जाने वो यमराज थे कौन
पत्ते ने सोचा है यह पौन
हो लिया संग हवा के
कभी गिलहरी ने खाया
कभी मरहम बना लगाया
कभी पोखर मे डूब गोता लगाया
कभी चिड़िया ने अपना घोसला बनाया
अंत आया गिरा भूमि पर
रोंदा पैरों के नीचे कितनों ने
बरखा आई रिमझिम रिमझिम
पत्ता लगा कांपने थर थर
कीचड़ में पड़ा बेचारा
उड़ने का साहस भी खोया सारा
सुने कौन फिर उसकी पुकार
यही है सृष्टि का असली वार
निकले प्राण मिला धूल में
माटी को तब किया प्रणाम
शाख से लटका था जो पत्ता
अधर में था जीवन उसका
अजीब नियति पाई है
पेड़ों को जीवन देकर
स्वयम्‌ ने मृत्यु अपनाई है
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Tuesday, May 2, 2017
Topic(s) of this poem: life and death
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 02 May 2017

वृक्ष पर उगे एक पत्ते की जीवन यात्रा का तथा उसके बलिदान का सुंदर वर्णन. कविता एक दार्शनिक विचार के गिर्द घूमती लगती है. धन्यवाद, कवि मित्र.

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