दीवारों पर कई छाप देखी
कही अनकही कुछ बातें देखी
ये मूक दीवारें जिनसे टकरा टकरा कर
हर आरजू आती है इन दीवारों से टकरा कर
चूर चूर हो जाती हैं सारी आशाएं
कई चित्र थे दे अनदेखे
आज फिर देख रहा उन चित्रों को
सोचता हूँ
इन चित्रों का क्या अस्तित्व है
ये क्यों हैं यहाँ सदियों से
इनसे कोई पूछे ये क्यों मूक हो बैठे हैं
ये सभी कुछ न कुछ पा गए हैं
ये कुछ सुने अनसुने कथन
इनको किसने कहा, किसने सजाया क्या पता
इनका अर्थ कोई खोज नहीं पाया
ये सारी बातें जीवन तरु से
उड़कर कहीं दूर जा बैठी
खोजते खोजते साँझ हो गयी
और ये मूक चित्र अँधेरे में तब्दील हो गए
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