मूक चित्र Poem by Kezia Kezia

मूक चित्र

दीवारों पर कई छाप देखी
कही अनकही कुछ बातें देखी
ये मूक दीवारें जिनसे टकरा टकरा कर
हर आरजू आती है इन दीवारों से टकरा कर
चूर चूर हो जाती हैं सारी आशाएं
कई चित्र थे दे अनदेखे
आज फिर देख रहा उन चित्रों को
सोचता हूँ
इन चित्रों का क्या अस्तित्व है
ये क्यों हैं यहाँ सदियों से
इनसे कोई पूछे ये क्यों मूक हो बैठे हैं
ये सभी कुछ न कुछ पा गए हैं
ये कुछ सुने अनसुने कथन
इनको किसने कहा, किसने सजाया क्या पता
इनका अर्थ कोई खोज नहीं पाया
ये सारी बातें जीवन तरु से
उड़कर कहीं दूर जा बैठी
खोजते खोजते साँझ हो गयी
और ये मूक चित्र अँधेरे में तब्दील हो गए
*****

Friday, May 12, 2017
Topic(s) of this poem: philosophical
COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Close
Error Success