आंखें ही आंखे दिखाई देती थी
उस अजनबी भीड़ में
मेरी आंखें उठती तो वो सारी
आंखे मुझे घूरती मालूम होती
यह शायद वहम था
मेरे आंखें नीचे करते ही वो एक साथ
मुझ पर से हट जाती
उस अजनबी भीड़ मे हर जोड़ी आँख
काली भूरी हरी नीली
ही पहचानने लायक थी
चेहरे तो सब के सब नकाबो से
सजे हुए होते है
चेहरो की सच्चाई जांचने का
तो पैमाना नहीं था उस वक़्त मेरे पास
सभी चेहरे अपने अपने हिसाब से
खूबसूरत नकाबो की गिरफक्त में होते हैं
मैं नही जानता था
किसी भी चेहरे को
सभी नये से दिखते थे
दो बड़ी बड़ी आंखें
एक सी नाक और भौहें
कुछ ना कुछ बडबडाते भौंडे होँठ
फिर भी कितना भेद
लेकिन मैं भेद नही कर पाता
आंखें ही पहचानने का जरिया बन जाती हैं
वही घूरती और गुर्राती आँखे
मुझे हर चेहरा एक सा नज़र आता
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