उस अजनबी भीड़ में Poem by Kezia Kezia

उस अजनबी भीड़ में

आंखें ही आंखे दिखाई देती थी
उस अजनबी भीड़ में
मेरी आंखें उठती तो वो सारी
आंखे मुझे घूरती मालूम होती
यह शायद वहम था
मेरे आंखें नीचे करते ही वो एक साथ
मुझ पर से हट जाती
उस अजनबी भीड़ मे हर जोड़ी आँख
काली भूरी हरी नीली
ही पहचानने लायक थी
चेहरे तो सब के सब नकाबो से
सजे हुए होते है
चेहरो की सच्चाई जांचने का
तो पैमाना नहीं था उस वक़्त मेरे पास
सभी चेहरे अपने अपने हिसाब से
खूबसूरत नकाबो की गिरफक्त में होते हैं
मैं नही जानता था
किसी भी चेहरे को
सभी नये से दिखते थे
दो बड़ी बड़ी आंखें
एक सी नाक और भौहें
कुछ ना कुछ बडबडाते भौंडे होँठ
फिर भी कितना भेद
लेकिन मैं भेद नही कर पाता
आंखें ही पहचानने का जरिया बन जाती हैं
वही घूरती और गुर्राती आँखे
मुझे हर चेहरा एक सा नज़र आता
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Sunday, May 28, 2017
Topic(s) of this poem: crowd,people
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