समाज Poem by Larika Shakyawar

समाज

Rating: 2.0

बाहरी आडंबरों की प्रशंसा से सुसज्जित
यह समाज हमारा है,
एक कतार में भागते लोगों की दोड़ का भागीदार होना
कर्तव्य हमारा है!
खुली सोच का स्वतंत्र इंसान,
सपने, इच्छाएं उसकी अवांछनीय हैं,
यह समाज हमारा है
इसके​ अनुसार चलना चलन हमारा है!

धर्म की सलाखों के पीछे
परम्पराओं की बेड़ियों में जकड़े रहकर,
खुद को भूल जाना काम हमारा है,
खुद की खुशियां चाहना घोर अपराध है,
क्योंकि समाज के अनुसार चलना चलन हमारा है!

शिक्षित हो या अशिक्षित
अलग दृष्टिकोण रखना अमान्य है,
अच्छा करें या बुरा करें
निसंदेह दोनों तरफ बातें बनना स्पष्ट है,
फिर भी समाज की परवाह करना धर्म हमारा है!

नाम, इज्जत, दौलत हो
सपनों का त्याग चाहें मजबूरी क्यों ना हो,
कम में खुश गरीब इंसान
बाहरी व्यंग्य से लदा क्यों ना हो,
यह समाज हमारा है
अमीरी गरीबी का ढोल पीटना काम हमारा है!

आदमी से पहले औरत के चाल चलन पर उंगली उठाना
हमारी रीत पुरानी है,
आज भी दर्द सह चुप हो जाना
कुछ हम में से किसी की कहानी है,
फिर भी समाज के अनुसार चलना चलन हमारा है!

Thursday, June 1, 2017
Topic(s) of this poem: irony
POET'S NOTES ABOUT THE POEM
To write on society is very common but the content of my work is what I have felt and what I have seen in this society...This poem is written sarcastically. And the only message that I want to pass is do your karma without care of society, when u will in trouble society wouldn't stand besides you.
COMMENTS OF THE POEM
Jazib Kamalvi 01 June 2017

Could not read. Should be in urdu or english script. Thanks

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Larika Shakyawar

Larika Shakyawar

Rajgarh M.P., India
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