जिंदगी निखरती ही नहीं थी Poem by Kezia Kezia

जिंदगी निखरती ही नहीं थी

Rating: 5.0

वो अपने सपनों के बचे चारकोल से
हर रोज उसे घिसती थी
चमकाने के लिए
पुराने भांडों की तरह रगड़ती थी
हर एक दाग छुड़ाना चाहती थी
हर निशान को फीका करने की
जुगत लगाती थी
फिर भी ना जाने क्यों
जिंदगी निखरती ही नहीं थी

Tuesday, June 13, 2017
Topic(s) of this poem: philosophical
COMMENTS OF THE POEM
Johan Da 14 January 2018

वाह।।।।। मज़ा आ गया पढ़ कर। कितने बेहतरीन शब्दों को पिरोया है इस प्रस्तुति में। शुक्रिया ,😊😃

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Rajnish Manga 13 June 2017

वो अपने सपनों के बचे चारकोल से हर एक दाग छुड़ाना चाहती थी.... //.... अद्वितीय रचना व खुबसूरत अभिव्यक्ति. हर कोई चाहता है कि जीवन पाक साफ़ हो और ऐसा नज़र भी आये. बहुत खूब.

0 0 Reply
M Asim Nehal 13 June 2017

क्या बात है, मज़ा आ गया इसे पढ़ के, शब्दों का सही चयन किया है आपने, ज़िन्दगी का विश्लेषण करने के लिए

3 0 Reply
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