रात ऐसी कि सूरज ग़ुरूब हो न सका
सुबह हो न सकी और मैं सो न सका
मुन्तज़िर थी निगाह जिसकी आमद की
काश कि मेरा वो सनम आये
पल भर ठहर ऐ मेरी अजल
वो जो आये तो ही हम आये
चाहा लाख कि दर्द से दूरी हो
ऐसा अपना बना वो कि कभी खो न सका
सुबह हो न सकी और मैं सो ना सका
बहुत कोशिश की कि कोई याद भूल जाऊँ
जो चाहा वो तो कभी भी हो ना सका
सुबह हो न सकी और मैं सो ना सका ।
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bahut khubsurat nazm. mohabbat ka ek roop yh bhi hai. shukriya.