"बदरंग मानवता" Poem by vijay gupta

"बदरंग मानवता"

"बदरंग मानवता"

पूरब से निकलकर पश्चिम में छिप जाना,
शगल तुम्हारा हो गया है।
धरती को अंधेरे में डूबोना
सूरज की आदत में शुमार हो गया है,
नाराज हो या दयावान
नहीं जानता मैं?
लगता है तुम चाहते हो-
बच्चे अपनी माँ के आँचल में छिप जायें,
माली झोपड़ी में चला जाये,
पिता अपने बच्चों को दुलारे,
पक्षीगण नीड पर चले जायें,
धरती का ये हिस्सा,
पूर्ण विश्राम को प्राप्त हो,
परंतु ये क्या?
मानव तो विकास अंधी दौड़ में,
बेतहाशा भाग रहा है,
ना दिन की परवाह,
ना रात की फिक्र,
उसे तो चाहिए
सिर्फ और सिर्फ काम ही काम।
रात के आगोश में भी
वो कारखाने चलाता है,
खदानें खोदता है,
कंप्यूटर में आंखें गड़ाये रहता है,
पैसे के लिए हो जो भी संभव
वो कृतय करता है,
उसकी मजबूरी भी है
गरीबी से लड़ना,
अशिक्षा से लड़ना,
बिमारियों से लड़ना,
प्राकृतिक आपदओं से लड़ना,
युद्ध ग्रस्त माहौल को सहना,
मगर है सब भयावह।

Saturday, December 15, 2018
Topic(s) of this poem: materialism
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