लाडला बिगड़ा नहीं
सामने जो खड़ा है पेड़ आम का
लदा है फलों से पत्तों से,
दयावान है बढ़ा,
देता है फल भी इफरात में,
ठीक मेरे बाबूजी की तरह,
हमें देख उनका हाथ बेहिचक पर्स में चला जाता था।
विपरीत ठीक इसके,
खड़ा है पेड़ नीम का,
फल भी कड़वा, पत्ते भी कड़वे,
ठीक मेरी माँ की तरह,
व्यवहार नीम के पत्तों की तरह
नसीहते निंबोली की तरह कड़वी।
मगर प्यार का बेहिसाब
खजाना छिपा है इन सब में।
बाबूजी नरम दिल,
माँ कड़क मिजाज,
बाबूजी खुले मन से देते,
माँ नसीहतें उनको भी देती,
चिंता इस बात की कि
लाडला बिगड़ ना जाए कहीं।
धीरे-धीरे समय चलता रहा,
दरिया दिली व नसीहतें भी चलती रही,
आज सिर्फ वो यादों में ही है,
यादें बहुत याद आती है,
क्या करें ये सब नियति ही है
मगर एक बात सच है कि
उनका लाडला आज भी नहीं बिगड़ा।
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